अँखियों से झर रहे,बूँद-बूँद मोती 
राधा पग-पग फिरे,विरह बीज बोती
सोच रही काश में ,कान्हा सँग होती 
चूम-चूम बाँसुरी,अँसुवन से धोती 
मथुरा पँहुच कर सखि,भूले कन्हाई  
वृन्दावन नम हुआ ,पसरी तन्हाई 
मुरझाई देखता ,बगिया का माली 
तक-तक राह जमुना ,भई बहुत काली 
 खग,मृग, अम्बर, धरा,हँसना
सब भूलें  
 महुआ जूही  कमल ,टेसू  ना फूलें
 पूछ रही डालियाँ ,कौन
संग झूलें   
 निष्ठुर, निष्पंद हिय,
उठती हैं हूलें  
कोयलिया डार पर ,कुहुक-कुहुक रोई 
बीतें जग-जग दिवस ,रतिया न सोई 
बिरही  पगडंडियाँ , शूल-
शूल बोई  
 संदेसा भेज दे
,कान्हा  को  कोई    
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बिरही पगडंडियाँ , शूल- शूल बोई
जवाब देंहटाएंसंदेसा भेज दे ,कान्हा को कोई
कितना सुंदर विरह गीत।
बहुत हीं मोहकता |
जवाब देंहटाएंसुंदर छंद बद्ध रचना..
जवाब देंहटाएंकोयलिया डार पर ,कुहुक-कुहुक रोई
जवाब देंहटाएंबीतें जग-जग दिवस ,रतिया न सोई
bahut sundar bhaav ... abhaar
बहुत सुन्दर पंक्तियां....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...... राजेश जी
जवाब देंहटाएंसुन्दर चित्रण...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना , खूबसूरत भाव !
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