यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 16 नवंबर 2014

कुछ क्षणिकाएँ ' औपचारिकता ’



आज तुमने बुलाया तो चली आई  
मगर ये तुम भी जानते हो 
न तुमने बुलाया दिल से न मैं दिल से आई 



अच्छा हुआ जो तुम मेरी महफ़िल में नहीं आये
क्यूंकि तुम अदब से आ नहीं सकते थे
और मैं औपचारिकता निभा नहीं सकती थी


आयोजन में कस के गले मिले और बोले 
अरे बहुत दिनों बाद मिले हो अच्छा लगा आप से मिलकर
सुनकर हम दोनों के घरों के पड़ोसी गेट हँस पड़े   



 सुबह से भोलू गांधी जी की प्रतिमा को रगड़-रगड़ कर साफ़ रहा है
 परिंदे आज बहुत  खुश हैं
 चलो कम से कम एक साल में तो उनका शौचालय साफ़ होता है



गंगा खुश है आज उसे गुदगुदी हो रही है वो हँस रही है   
शायद कोई गंगा दिवस भी घोषित हो जाए
और वो भी एक औपचारिकता के अध्याय में जुड़ जाए. 

  


बुधवार, 5 नवंबर 2014

दो घनाक्षरी

क्षमता से भारी-भरकम लेके सवारियाँ, खड़ी हुई स्टेशन पे लोहपथगामिनी
डिब्बों में मारामारी ठूँस-ठूँस भरके चली,भीड़ से बेहाल करे भोर हो या यामिनी
सीट नहीं मिले कोई छत पे छलांग रही ,बड़ी है निडर लाल साड़ी वाली कामिनी
दूजे बाजू उसका लाल डिब्बों का अंतराल,बनी डोर ममता की द्रुत 
गति दामिनी


रेलवे विधान वही बढती आबादी रही,यही तो विडंबना है भारत महान की
एक ओर मजबूरी दूजी ओर धोखाधड़ी , छत पे सफ़र करें चिंता नहीं जान की
लेना न टिकट चाहें चोरी से जुगाड़ करें,कहाँ इन्हें परवाह है मान सम्मान की

प्रशासन सुधार करे  रेलवे विधान में, ध्वजा तब  बुलंद हो मेरे हिन्दुस्तान की
______________