यह ब्लॉग खोजें

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

तृषिता (दुर्मिल सवैया)

    


चुपके-चुपके मुखड़ा ढक के कल रात सखी घर से निकली , 

गरजे बदरा धड़का जियरा दमकी घन बीच मुई बिजली||
उतरी नभ से जग के डर से लहकी-लहकी फिरती तितली,
जल बीच रही तृषिता मछली तड़पी रतिया सगरी इकली|


मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

उन्मत्त परिन्दा (अतुकांत )

तोड़ नीड़ की परिधि
लांघ कर सीमाएं
भुला  नीति रीति
सारी वर्जनाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
********