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बुधवार, 23 अप्रैल 2014

तृषिता (दुर्मिल सवैया)

    


चुपके-चुपके मुखड़ा ढक के कल रात सखी घर से निकली , 

गरजे बदरा धड़का जियरा दमकी घन बीच मुई बिजली||
उतरी नभ से जग के डर से लहकी-लहकी फिरती तितली,
जल बीच रही तृषिता मछली तड़पी रतिया सगरी इकली|


9 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! क्या कहें, क्या ना कहें? बहुत खूबसूरत और अतिसुन्दर विन्यास...
    मेरे ब्लॉग का भ्रमण करें एक बार www.knkayastha.in

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (25.04.2014) को "चल रास्ते बदल लें " (चर्चा अंक-1593)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  3. सुन्दर रचना !!

    मेरे ब्लॉग की नवीनतम रचना "मै मख्खन बेचता हूँ " को पड़ने के लिए मेरे ब्लॉग manojbijnori12.blogspot.com पर आये और अपने सुझावाओ से हमे मार्गदर्शित करें !!

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  4. ☆★☆★☆



    उतरी नभ से जग के डर से लहकी-लहकी फिरती तितली,
    वाह ! वाऽह…!
    क्या ख़ूब
    आदरणीया
    सुंदर छंद के लिए साधुवाद

    मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार



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