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शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

कुछ कह मुकरी


कुछ कह मुकरी 
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जब से साल सोलहवां आया 
मन ही मन ये दिल भरमाया 
मेरी आँखों में वो लगे हंसने 
सखी साजन! ना सखी सपने 
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पलकें मेरी झुक-झुक जाएँ 
फिर चुपके  से मुझे बुलाये 
वदन श्रृंगार उसी को अर्पण 
सखी साजन ! ना सखी दर्पण 
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सगरी नगरी जब सो जाए 
दबे पाँव अँधेरे में आये 
डरे कहीं हो जाए ना भोर 
सखी साजन !ना सखी चोर 
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प्रेम पाश में मुझे फंसाए 
रेशमी बांहों में वो झुलाए 
धीरे धीरे मुझे सुलाए 
सखी दूल्हा !ना सखी झूला 
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तीनो पहर वो मुझे बुलाये 
बिन उसके भी रहा ना जाए 
अपनी अगन में मुझे तपाये 
सखी दूल्हा ! ना सखी चूल्हा 

(६)
रात चांदनी पुहुप महकाये
श्वेत किरणों का जाल बिछाए 
सम्मोहन में मुझे फंसाए 
ऐ सखी चंदा !ना सखी रजनी गंधा
(७)
जब भी मेरे पास में आये 
मेरा आँचल उड़ -उड़ जाए 
मेरे तन-मन को उलझाए 
ऐ सखी पवन !! ना बुद्धू, साजन 
          *****     

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

आशियाना (एक लघु कथा) २०० वी पोस्ट

दोस्तों ये मेरी २०० वी पोस्ट है इस अवसर पर मैं एक लघु कथा पहली baar  अपने ब्लॉग पर  पेश कर रही हूँ आप सब अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित हैं |
                             आशियाना 
अरे भाई हँसमुख जी, आज क्यूँ उदास हो, क्या हुआ ? क्या बताऊँ मैं आज बहुत परेशां हूँ, आप ही बताओ आप को कैसा लगेगा यह जान कर कि आप जिस घर में पिछले दस साल से अकेले रहते हो, उसमे आप के अलावा कोई और भी अचानक आकर रहने लगे !! कल रात कुछ लोग अचानक मेरे घर में मेरे ही सामने मेरे घर में डेरा डाल कर बैठ गए और अपना आधिपत्य जताने लगे और मैं कुछ न कर सका | जी में तो आया कि एक एक को उठाकर फेंक दूं पर क्या करे हमारी भी कुछ अपनी सीमायें हैं | क्या करूँ कौन से तंत्र मंत्र का सहारा लूं कि वो भाग जाएँ, पर सोचता हूँ कि इसमें इनका क्या दोष, दोष तो मेरे ही अपनों का है जिन्होंने मेरे हाथो से बनाए हुए दिनरात मेहनत करके बनाए हुए मेरे इस आशियाने को दूसरों को बेच दिया | कल वो मेरा श्राद्ध दूसरे देश में मना रहे हैं, अपना देश अपना आशियाना छोड़  कर इतनी दूर कैसे जाऊं इसी लिए मैं आज बहुत दुखी हूँ मित्रो |

शनिवार, 21 अप्रैल 2012

जय हिंद, वन्दे मातरम


जंग से पलटना तो मेरी फितरत में ना था 
मेरी राह में अगर  बमबारी  मिली तो क्या हुआ 
आँखों में दर्द की बदरी तो उमड़ी थी बहुत 
पलकों को झपकने की बारी ना मिली तो क्या हुआ
खून से भरे पिंड तो बहुत  बिखरे थे वहां 
एक मुकम्मल गर्दन हमारी ना मिली तो क्या हुआ 
लिपटा तो लिया तिरंगे ने यूँ कस के मुझे 
इक मुझे माँ की छाती प्यारी ना मिली तो क्या हुआ
लहरा तो दिया फिर जीत का पंचम हमने 
फतह में जिंदगी मुझे न्यारी ना मिली तो क्या हुआ 
                           जय हिंद , वन्दे मातरम 
                                         *****

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

पिघलते हिमनद



सो रही है दुनिया सारी
तुम हर पल क्यूँ सजग रहे 
कौन व्यथा है दबी हिय में 
किस अगन में संत्रस्त रहे |
घूर रहे क्यूँ रक्तिम चक्षु 
कुपित अधर क्यूँ फड़क रहे 
दावानल से केश खुले क्यूँ 
तन से शोले भड़क रहे |
प्रदूषण ने ध्वस्त किये 
जो, बहु  तेरे संबल रहे 
कतरा -कतरा टूट-टूट कर 
चुपके -चुपके पिघल रहे |
हे हिमगिरी,हे हिमनद   
पिघलते रहे जो 
यूँ ही अप्रतिहत      
प्रलय  भयावही आएगी  
जगत  जननी, पावन  धरिणी 
सब  जल  थल  हो  जायेगी |  
कष्ट निवारक ,विपदा हारक
हे  जगदीश ,हे  त्रिपुरारी 
उसे  जगा दो अपने बल से 
सो रही जो दुनिया सारी|
   *****
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मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

वो पीपल का पेड़


कुछ पल मेरी छावं में 
बैठो तो सुनाऊं 
हाँ मैं ही वो अभागा 
पीपल का दरख्त हूँ 
जिसकी संवेदनाएं मर चुकी हैं 
दर्द का इतना गरल पी चुका हूँ 
कि जड़ हो चुका हूँ !
अब किसी की व्यथा से 
विह्वल नहीं होता 
मेरी आँखों में अश्कों का 
समुंदर सूख चुका है |
बहुत अश्रु बहाए उस वक़्त 
जब कोई वीर सावरकर 
मुझसे लिपट कर रोता था 
और  विषण मैं, उसके अन्दर 
सहन शक्ति की उर्जा 
का संचार करता,
अपने पंखों से उसके 
अश्रु और और स्वेद  कण
जिनमे उसकी श्रान्ति और 
उस पर हुई बर्बरता का अक्स
साफ़ दिखाई देता ,उनको  सुखाता था |
उन दिनों मैं युवा था 
और अपने देश कि मिटटी के लिए 
वफादार था 
मैं हर उस बुल -बुल से
 इश्क करता था 
जो मेरी भुजा पर बैठ कर 
देश भक्ति के गीत गाती थी |
पर वही भुजा  अगले दिन
 काट दी जाती थी 
और मैं घंटों अश्रु बहाता था |
जब भी मेरे किसी वीर जवान कि 
दर्द भरी चीख मेरे कर्ण पटल पर पड़ती 
मैं थर्रा उठता और जाने 
कितने मेरे अजीज  पत्ते
मेरे बदन से कूद कर आत्म हत्या कर लेते थे |
और मेरे हर्दय से दर्द का सैलाब 
उमड़ पड़ता |
आये दिन मेरे ही नीचे से 
मेरे वीरों की अमर आत्माओं 
को घसीट कर ले जाते थे 
और मैं विदीर्ण हर्दय से मौन 
मौन होकर शीश झुकाकर
उनके चरणों में नमन करता 
और शपथ खाता कि
भविष्य में लिखे जाने वाले 
इतिहास में ,एक प्रत्यक्ष दर्शी के रूप में 
गवाही दूंगा और आने वाली पीढ़ी को 
अपने वीरों की 
 देश भक्ति की गाथा सुनाकर 
प्रेरणा का संचार करूँगा 
आज भी मेरा पोर -पोर 
इस देश को समर्पित है 
इसी लिए आज भी  प्रतिज्ञा बध
जस का तस खड़ा हूँ ||  
(cellular jail/काला पानी जेल में पीपल के बहुत पराने जेल बनाने के वक़्त से खड़े  पेड़ को देखकर जो भाव मेरे मन में आये उनको इस रूप में आपसे सांझा कर रही हूँ )