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सोमवार, 21 नवंबर 2011

My daughter's wedding anniversary today,waiting for your blessings.



India slideshow. Take your travel photos and make a slideshow for free.दोस्तों मैं एक हफ्ते के लिए बाहर जा रही हूँ कुछ सामग्री लेने वापस आकर एक इमारत जो बनानी है शुभ विदा 

शनिवार, 19 नवंबर 2011

भोर

(my photography)
शरमा गई चांदनी, देखकर रवि को झील में नहाते हुए, 
छुपा लिया चंदा ने मुखड़ा जब देखा किरणों को आते हुए

नीड़ों से बाहर आये खगचर मस्ती में चहचहाते हुए,  
नारंगी लाली संग उलझे मछुआरे जाल बिछाते हुए !
झील के उर में उठे हिलौरे जब हंस चले बलखाते हुए, 
नाव को खेता जाए खिवैय्या  भोर का गाना गाते हुए! 

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

कुछ अलग (दोहे )

                कुछ अलग अर्थात पहली बार दोहे लिखने की कोशिश की है प्रयास कैसा है आप बताएँगे !

                                                                             (१)
                               मंहगाई की मार ने ऐसे जख्म लगाए 
            जिह्वा कंठ में रूधि मुह से न निकली हाय !!                                  
                                     (२)
              पढ़े लिखो के देश में पाखंडी बढ़ते जाएँ 
             आगे आगे बाबा ,करोड़ों पीछे पीछे आयें!! 
                                    (३)
             ओलम्पिक में चूक गए फिर काहे पछताए 
             मंहगाई की दौड़ में स्वर्ण पदक ले आये!!  
                                    (४)
             जाने क्यूँ उन्हें स्वदेश की रोटी नहीं सुहाए 
             चाहे फिर परदेश में धोबी के श्वान बन जाएँ !!
                                    (५)
             कंहा से आया भ्रष्टाचार सब प्रश्न यही दोहराए 
             झांको अपने उर में जरा ,उत्तर वंही समाए!! 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

अश्क


अश्क
हर अश्क पे लिखी हुई अपनी कहानी है
कभी शबनम की बूंदे,
कभी सागर का खारा पानी है I
कभी विरहनियों के
द्रगों से बरसता सावन,
कभी भूखे ,बिलखते हुए
शिशु का भिगोता दामन,
कभी कवियों की कल्पना का
सीप का मोती,
कभी गम के बादलों से
झांकती हुई ज्योतिI
बयाँ करता है हर जख्म
ये अपनी जुबानी है
कभी शबनम की बूंदे
कभी सागर का खारा पानी है I
शहीदों की चिताओं पर
ये लहू से मिलके बहते हैं
बदले हैं इतिहास इन्ही से
ऐसा ज्ञानी कहते हैं I
जब जब इनका बढ़ा सैलाब
तब तब आया इन्कलाबI
ये कभी ममता कभी
ख़ुशी के आसूं हैं
बेहतर हैं सब से
जो पश्चाताप के आंसू हैं II
*****






शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

क्यूँ बुरा लगा ?

जब देदी तुमने दियासलाई फिर उन्होंने आग लगाई 
क्यूँ बुरा लगा ?
बिखरा दिए जब बीज गरल के ,फिर जहरीली फसल उग आई 
क्यूँ बुरा लगा ?
जब चोरो को देदी चौकी ,उसी में उन्होंने  सेंध लगाई 
क्यूँ बुरा लगा ?
जब भ्रष्ट हाथों में देदी कुर्सी ,उन्होंने देश की जड़े हिलाई 
क्यूँ बुरा लगा ?
भरते रहे विदेशी गुल्लक ,फिर महंगाई की महामारी आई 
क्यूँ बुरा लगा ?      

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

जलती रही विभावरी

तिल-तिल जलती रही विभावरी 
लावा द्रगों से बहता रहा, 
बदन को नोचती रही मजबूरियां 
चिन्दा चिन्दा कलेजा फटता रहा !
शुष्क हुआ क्षीर का सोता, 
भूख से शिशु रोता रहा!
मरता रहा कोख में स्त्रीत्व, 
पुरुषत्व दंभ भरता रहा !
लुटती रही अस्मतें, 
विधाता मूक दर्शक बनता रहा! 
गरीबी चीरहरण करती रही, 
दूर खड़ा जमाना हंसता रहा ! 

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

मिलन का इन्द्रधनुष

कुछ लम्हों के लिए तेरा आना ,
मेरे पास ठिठक कर रुक जाना 
और मुस्कुरा कर चले जाना 
भला लगा था !
तुम्हारा पुनः आना 
और मेरे पास चुपचाप बैठ जाना 
वो सानिध्य सुखकर लगा था !
तुम्हारे चेहरे के बदलते रंग 
मैंने महसूस किये ,
तुम्हारे माथे की शिकन 
को खुलते देखा ,
अधरों पर हलकी सी मुस्कान को 
आते जाते देखा !
न जाने कब तुम्हारे नयनो 
के निश्छल प्यार की कलम ने 
मेरे हर्दय के कागज़ पर 
प्रेम कहानी लिखनी शुरू कर दी !
अब मेरे इन्तजार का सिलसिला बढ़ने लगा 
और तुम्हारा मेरे पास ठहरने का वक़्त भी !
पर तुम्हारा   मूक ,अपलक मुझे देखते रहना 
मुझे मन मंथन के लिए अग्रसित करता था 
कुछ तो था मुझमे जो तुम रोज मेरे पास
 खिचे चले आते थे ,फिर कुछ कहते क्यूँ नहीं !
प्रत्यक्ष को प्रमाण भी चाहिए ,
मैं   तो पहले ही तुम्हारे प्रतिबिम्ब को 
अपने ह्रदय में समां चुकी थी !
धीरे धीरे चंद्रमा को तुम अपने हाथों से 
ढांपने लगे 
शायद तुम डाह करने लगे थे 
उसकी किरने  जो मुझे चूमती थी 
पवन ने शरारत से मेरी जुल्फों 
को छुआ ,तो तुम्हारे चेहरे की रंगत  ही बदल गई !
तुम मेरे पास बैठ कर मखमली घास में 
ऐसे आड़ी तिरछी रेखाएं खींचते 
मानो आने वाले तूफ़ान को जकड़ने 
के लिए चक्रव्यूह रच रहे हों !
पर आज अचानक शांत झील में ये हलचल क्यूँ 
लगता है मुझसे भी छुपकर 
तुमने मेरे बदन को हौले से स्पर्श किया 
और तुम्हारे  होठों से अनायास ही 
मुखरित हुए ये चिरप्रतीक्षित शब्द 
तुम  मेरी हो !
एहसास हुआ आज आसमान झुक गया 
मेरा सर तुम्हारे काँधे पर था, 
पर मेरा दिमाग आने वाले भूकंप को साक्षात 
देख रहा था !
तुम्हारे मौन का अर्थ अब मैं समझ रही थी, 
क़ि क्या  कभी अम्बर और धरा का मिलन हो सकता है 
क्या ये पग पग में बिछे ज्वालामुखी
उच्च और निम्न ,श्याम और श्वेत 
लोह और स्वर्ण के मिलन का 
इन्द्रधनुष बनने देंगे कभी ??
और न जाने कब मेरी पलकों 
का सावन तुम्हे भिगो गया !         
*****


      
  

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

पर्यावरण बचाओ


पर्यावरण बचाओ
हरे हरे तुम पेड़ लगाओ
फिर उन्ही से छैयां पाओ
करते रहे तुम यूँ ही कटाई
फिर मत कहना विपदा आई I
पर्यावरण से छेड़ करोगे
अपनी ही नाव में छेद करोगे I
करते रहे पर्वतों की छटाई
फिर मत कहना विपदा आई I
प्रकर्ति को रुष्ट करोगे
फिर जीवन भर कष्ट सहोगे
सिंघों बाघों की जो संख्या घटाई
फिर मत कहना विपदा आई I
प्रदूषण को दूर भगाओ
जीवन में खुशहाली लाओ
जो नहीं ये बात समझ में आई
वो देखो देखो विपदा आई I
*****