जय हनुमंत अमंगलहारी
प्रभु तेरी सेना बड़ी दुखकारीI
नित मेरी बगिया में उत्पात मचावें
फिर मुझको ही अंगूठा दिखावें I
गाजर ,मूली ,भिन्डी सब खाई
खीरे और कद्दू कि तो कर दी सफाई I
नहीं खाते यह सोच अदरख भी लगाईं
इन मुओं ने कहावत भी झुठलाई I
ना मैं सिया ना ये सोने कि लंका
फिर क्यूँ निशदिन बजावें डंकाI
,फल भी आधे फेंके आधे खाए
ये भिलनी के कपूत कहाँ से आयेI
कष्ट निवारण हेतु पटाखे भी छुडाये
किन्तु अगले ही दिन ये फिर लौट आयेI
क्या करूँ प्रभु ,ये तो बहुत ही छिछोरे
दिखाऊं गुलेल तो खीसें निपौरेI
हे प्रभु अगर इस कष्ट से मुक्ति पाऊं
हर मंगलवार तुझपे प्रसाद चढाऊं I
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