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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी(गीत )

गाँव पँहुचने पर मैय्या जब पूछेगी मेरा हाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
मेरी  चिरैया कितना उड़ती
पूछे जब उन आँखों से 
पलक ना झपके उत्तर ढूंढें  
तब तू जाना टाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
पूछेगी फिर बेला चमेली
कितनी चढ़ी ऊँचाई  पर
इस घर में नही कोई सीढ़ी 
छोटी है दीवाल सखी  
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
जब वो हंसती कितनी झरती  
मुक्तक मणियाँ मुखड़े से  
समझाना यहाँ मेरी झोली    
  अब है मालामाल सखी  
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
पूछेगी उसकी अँखियों का
कजरा अब कितना खिलता  
खोल के तू अपने हाथों से
देना ये रुमाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी

  सुनके मेरी बातें अगर जो        
  मैय्या का उर भर आयें    
तुझको कसम है इस बहना की
लेना तू सम्भाल सखी

कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
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सोमवार, 18 नवंबर 2013

मेरा बचपन मेरा गाँव (दोहा गीत )




सुबह शाम को मंदिरों, में मन्त्रों का जाप
सांझ ढले जब दूर से, सुनें ढोल की थाप| 
कानों में जब भोर में,पड़े ग्वाल का गान
सांझ ढले चौपाल पर,वो आल्हा की तान| 
पीपल की वो गाँव में, ठंडी- ठंडी छाँव|
आँगन की मुंडेर पे , कौओं की वो काँव||  
निरंतर ट्यूबवैल से ,पानी की भक भाक
धान कूटते हाथ से ,मूसल की ठक- ठाक|| 
छत पे तारे देखते ,गिनते मिलकर सा
सर्दी में चूल्हे निकट , रहें सेंकते हाथ||  
मक्के की वो रोटियां ,औ सरसों का साग|
कोल्हू का वो गुड़ गरम , गन्ने का वो झाग|| 
अब तक भी भूले नहीं, आते हमको याद
गाँवों को मत छोड़ना ,सुनो सभी फ़रियाद||

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

अंतर्मन से भाव निकल कर ,शब्दों में ढल जाते हैं

एक अनोखा गीत जिसका सृजन फेसबुक पर जाने माने गीतकार आदरणीय सतीश सक्सेना जी और मेरे मध्य हुई वार्तालाप से हुआ, उन्होंने मेरी एक रचना पर प्रतिक्रिया स्वरुप इस गीत के मुखड़े को भेंट किया और आगे इस गीत को पूर्ण करने के लिए मुझे प्रेरित किया ,लीजिये हाजिर है वो गीत-----  
मुझको पता नहीं यह कैसे,गीत स्वयं लिख जाते हैं !
कुछ भावों के बादल जैसे, उमड़-घुमड़  कर आते हैं !

दिल में जन्म लिया शब्दों ने बूँदें बन कर ज्यों बरसे
 अंतर्मन से भाव निकल कर ,शब्दों में ढल जाते हैं

 पावन प्रीत कलम की पाकर , रूप गीत का  है सँवरा
रस छंदों से मुक्तक मिलकर, काव्य कलष छलकाते हैं

साँस-साँस में छुपे दर्द को ,घूँट-घूँट हैं जो पीते
मिलकर पन्नों से वो आखर ,नव जीवन जी जाते हैं

पल-पल भाव हृदय से उठकर, कलम की बाहों में आकर
कभी ग़मों  की मधुशाला या,सरस गीत बन जाते हैं

      मन के कागज़ पर लिख देते, सप्तसुरों की परिभाषा  
      स्वर  वीणा  के तार छेड़कर, झंकृत ये कर जाते हैं

दोहों छंदों की माटी में,नव अंकुर जब-जब फूटे
      गीतों की सरिता में बहकर, मन सिंचित कर जाते हैं   
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं


हादिसों से आज जिंदगियाँ गुजरती जा रही हैं
शबनमी बूंदे ज्यों ख़ारों से फिसलती जा रही हैं

लूट कर अम्नो चमन को चल पड़े हो तुम जहाँ  से
बद दुआओं की वहां किरचें बिखरती जा रही हैं

अब्र तुझको क्या मिलेगा यूँ समंदर पे बरस के
देख नदियाँ आज सहरा में सिमटती जा रही हैं

हाथ दिल पर रख लिया फिर सीलती उस झोंपड़ी ने
रश्मियाँ ऊँची हवेली में उतरती जा रही हैं

बेटियां बाहर गई तो चैन क्यों आता नहीं अब
देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं

जो जमीं शादाव रहती थी यहाँ पर कहकहों से
नफ़रतों की ये रिदाएँ क्यों पसरती जा रही हैं


या ख़ुदा पर्दों के पीछे छुप गईं तहज़ीब अब तो
सूरतें जो जुल्म गर्दों की  निखरती जा रही हैं

पर गुलामी कैद से जिसको शहीदों ने बचाया
उस कमल की 'राज' पंखुड़ियाँ उखड़ती जा रही हैं
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ख़ार =कांटे
शादाव=हरीभरी
किरचें =छोटे छोटे कण
रश्मियाँ =सूर्य की किरणें
रिदाएँ =चादरें

सहरा =रेगिस्तान

सोमवार, 4 नवंबर 2013

हमारे पर्व


हमारे पर्व
शुभ हो धनतेरस तुम्हें ,स्वर्ण कलष लो तोल|
मैं बांटू रस छंद ये ,बिना भाव  बिन मोल||

पाओ तुम सम्पन्नता ,पर दुःख ग्रंथि  खोल|
 प्रणय  भाव से ही खुलें ,खुशियों के सब झोल||

झिल-मिल दीपक अवलियाँ, अंतर भरें उजास। 
दूर करें दुर्भावना , भरती  सरस मिठास ॥

गोवर्धन में पूजते ,गौ माता को लोग| 
जिसके मीठे दुग्ध से, बनते छप्पन भोग||


प्यारा बहनों को बहुत,भ्रात दूज का पर्व| 
बहनों के इस स्नेह पर ,भाई करते गर्व||
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