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रविवार, 1 जुलाई 2012

मूसलाधार


सूरज का रथ जब दौड़ रहा था
अनवरत अन्तरिक्ष पर पीछे जन्म लेते 
धूल के गुबार ने ढक
दिए सब वारि के सोते 
कुम्भला गए दम घोंटू 
गर्द में कोमल पौधों के पर 
हाँफते हुए ,पसीनों से लथपथ 
अश्वों के श्वेद कण 
मिल गए खारे सागर की बूंदों से 
जबरदस्त ज्वार उठा 
सागर के अंतर में 
मंथन से मुक्त होकर 
उड़ चला  वो वाष्पित  आँचल 
सुदूर गगन में 
मेघ श्रंखला से जुड़ने 
खोल दिए पट अभ्र्पारों ने 
चुका   दिया धरा का ऋण 
खुल के बरसे मूसलाधार 

22 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सच है आज खुलके बरसे मूसलाधार.....सुन्दर प्रस्तुति..

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  2. वाह......
    सुन्दर काव्यात्मक व्याख्या....

    सादर
    अनु

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  3. सूरज का रथ जब दौड़ रहा था
    अनवरत अन्तरिक्ष पर पीछे जन्म लेते...

    opening verse was so powerful..
    An awesome read !!!

    जवाब देंहटाएं
  4. सूरज जब तपता है तभी बादल बरसता है...सुंदर भाव युक्त कविता !

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  5. सुन्दर रचना!
    सबकी यही कामना है कि बादल आये और धरा की प्यास बुझायें।

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  6. चुका दिया धरा का ऋण
    खुल के बरसे मूसलाधार

    ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति....शब्दों और भावों का उत्कृष्ट संयोजन...

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...शब्दों और भावों का उत्कृष्ट संयोजन...

    जवाब देंहटाएं
  8. शब्दों ने वर्षा सा स्वर उत्पन्न कर दिया..

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति शब्दों के झंकार लिए .,कुछ हाव लिए ,कुछ भाव लिए ...

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  10. मूसलाधार न सही, कुछ छींटों और कुछ बौछारों ने राहत पहुंचाई है।

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  11. रिमझिम क्यों नहीं होती अब
    नहीं होती है या होती है
    बस मूसलाधार
    कर देती है आर या पार ।

    सुंदर !!!

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  12. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति

    कल 04/07/2012 को आपके ब्‍लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    '' जुलाई का महीना ''

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  13. बहुत सुन्दर चित्र खड़ा कर दिया आँखों के सामने ... लाजवाब ...

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  14. बहुत खूबसूरत रचना ! बड़ी सदाशयता से धरा का ऋण चुकाया मूसलाधार बारिश के रूप में ! बड़ी ही सुन्दर कल्पना की उड़ान ! आनंद आ गया !

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  15. दिल का दर्द जब आँखों से बह जाये तो सकूँ तो मिलता ही है। सुन्दर रचना।

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  16. सागर के अंतर में
    मंथन से मुक्त होकर
    उड़ चला वो वाष्पित आँचल
    सुदूर गगन में
    मेघ श्रंखला से जुड़ने
    खोल दिए पट अभ्र्पारों ने
    चुका दिया धरा का ऋण
    खुल के बरसे मूसलाधार

    क्या बात है,धरा का मूल ऋण
    चुक जाए तो बात ही बन जाए.

    ब्याज की बात तो फिर बाद की बात है.

    अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,राजेश जी.

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