फर्ज के अलाव में कब तक जलो
परछाई भी कहने लगी इधर चलो
चन्दन से लिपट खुद को समझ बैठे चन्दन
भ्रम जाल में खुद को कब तक छलो|
हम तो पानी पे तैरती लकड़ी हैं जनाब
सागर भी कहता है अब यूँ ही गलो|
हंस- हंस के गले मिलते हैं जड़े काटने वाले
फिर चलते हुए कहते हैं फूलों फलो |
ख़त्म हो चुका है कब से तेल बाती का
पर उनका यही कहना है रात भर बलो|
फर्ज के अलाव में कब तक जलो
परछाई भी कहने लगी इधर चलो|