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शनिवार, 2 अप्रैल 2016

मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने 'ग़ज़ल '

२१२२  ११२२  ११२२  २२
रमल मुसम्मन मखबून मकतूअ

डूबते वक़्त दिया जिसको सहारा उसने
कर लिया पार उतरते ही किनारा उसने

फालतू आज समझकर जो मुझे काट रहा
 मेरी ही छाँव में बचपन था गुजारा उसने

देख बदले हुए हालात हवाओं  के रुख
मौज में छोड़ दिया जिस्म-ए शिकारा उसने

बात होने लगी बिन बात हमारी अक्सर
बज्म में नाम लिया जबसे हमारा उसने

बाँटने बोझ किसी को तो खुदा ने भेजा
देख आसान किया काम तुम्हारा उसने

जात औ धर्म की माचिस से लगा चिंगारी
खूब आँखों से पिया खून-ए-नजारा उसने

कुछ दिनों का ये जजीरा न रुका कोई यहाँ
जाना पड़ता है तभी जब भी पुकारा उसने

देश के वीर जवानों को सुनाकर गाली
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने 
राजेश कुमारी 'राज'  
  

होली पर दोहा गीत 'सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर'



 सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर


सतरंगी चुनरी पहन,आई फागुन भोर
पिचकारी के मेह में,भीगे मन का मोर

होली के सद्भाव में ,मुखड़े मिले अनेक
नीले पीले रंग से ,हो जाते सब एक
एक सूत्र में बाँधती,कई रंग की  डोर 
सतरंगी  चुनरी पहन,आई फागुन भोर

द्वेष क्लेश का त्याग ही,होली मूल प्रतीक
लोग भुलाकर तल्खियाँ,आ जाएँ नजदीक
 ढोली ढपड़े संग में ,हुड्दंगों के शोर  
सतरंगी  चुनरी पहन,आई फागुन भोर


उपजी मन में भावना,शुद्द पर्व की साथ 
प्रेम रंग से जुड़ गए,शत शत जोड़े हाथ
फीके फीके रंग ले ,कौन गया चितचोर  
सतरंगी  चुनरी पहन,आई फागुन भोर


 सच्चाई की जीत हो,यही पर्व का मर्म 
जलती होली में मिटें ,सबके पाप अधर्म
सच्चाई से ही बँधा ,मृत्य लोक का छोर
सतरंगी  चुनरी पहन,आई फागुन भोर

राजेश कुमारी