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रमल
मुसम्मन मखबून मकतूअ
डूबते
वक़्त दिया जिसको सहारा उसने
कर
लिया पार उतरते ही किनारा उसने
फालतू
आज समझकर जो मुझे काट रहा
मेरी ही छाँव में बचपन था गुजारा उसने
देख
बदले हुए हालात हवाओं के रुख
मौज
में छोड़ दिया जिस्म-ए शिकारा उसने
बात
होने लगी बिन बात हमारी अक्सर
बज्म
में नाम लिया जबसे हमारा उसने
बाँटने
बोझ किसी को तो खुदा ने भेजा
देख
आसान किया काम तुम्हारा उसने
जात
औ धर्म की माचिस से लगा चिंगारी
खूब
आँखों से पिया खून-ए-नजारा उसने
कुछ
दिनों का ये जजीरा न रुका कोई यहाँ
जाना
पड़ता है तभी जब भी पुकारा उसने
देश
के वीर जवानों को सुनाकर गाली
मेरे
अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने
राजेश कुमारी 'राज'