वृक्ष पीपल का खड़ा है, आज भी उस गाँव में 
बचपना मैंने गुजारा, था उसी की छाँव में  
तीज में झूला झुलाती,गुदगुदाती 
मस्तियाँ  
गीत सावन के सुनाती ,सरसराती पत्तियाँ
गुह्य पुष्पक दिव्य अक्षय,प्लक्ष इसके नाम हैं  
मूल में इसके सुशोभित, देवता के  धाम हैं
स्वास्थ वर्धक ,व्याधि रोधक,बूटियों की खान है 
पूजते हैं लोग इसको  ,शुद्ध संस्कृति वान
है   
गाँव का इतिहास उसकी ,तंत्रिकाओं में रमा  
मूल में उसकी किसानों,का पसीना है जमा  
गाँव की पंचायते ,चौपाल भी जमती वहाँ 
गर्मियों की चिलचिलाती धूप भी थमती वहाँ 
चेतना  की ग्रंथियों को, आज भी वो  खोलता 
झुर्रियों में आज उसका, आत्मदर्पण बोलता 
शाख पर जिसके लटकती ,आस्था की हांडियाँ
                   झुरझुरी वो ले रही हैं,देख अब कुल्हाड़ियाँ                                                        
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