कुल बीते दिन चार ,चमन
का खोया माली
रोते पुहुप हजार ,कहाँ
कैसी दीवाली
व्यथित उत्तराखंड ,तबाही
कैसे भूले
आँसू मिश्रित आग ,जलेंगे
कैसे चूल्हे
बिना तेल के दीप ,जलेगी
कैसे बाती
बिना राग संगीत ,मुरलिया
कैसे गाती
मृत्यु नृत्य निर्बाध ,जहाँ
खेली थी होली
सने लहू से द्वार ,कहाँ
बैठे रंगोली
कुदरत ने दी मार ,धरा
अम्बर तक रूठे
रह-रह उठते टीस ,मिले
जो जख्म अनूठे
औरों का दुख देख , मनाऊं
खुशियाँ कैसे
बगल घर अन्धकार , जलाऊं
दीपक कैसे
खुशियों के हों रंग ,भरे
उनकी भी झोली
चौखट
जाए सूख ,सजे उस पर रंगोली
मिल जाएं परिवार ,बढ़े उनकी खुशहाली
भरो प्रेम से जख्म , मनाओ
फिर दीवाली
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