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गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

जलाऊं दीपक कैसे (एक रोला गीत )

कुल बीते दिन चार ,चमन का खोया माली
रोते पुहुप हजार ,कहाँ कैसी दीवाली
व्यथित उत्तराखंड ,तबाही कैसे भूले
आँसू मिश्रित आग ,जलेंगे कैसे चूल्हे
बिना तेल के दीप ,जलेगी कैसे बाती
बिना राग संगीत ,मुरलिया कैसे गाती
मृत्यु नृत्य निर्बाध ,जहाँ खेली थी  होली
सने लहू से द्वार ,कहाँ बैठे रंगोली
कुदरत ने दी मार ,धरा अम्बर तक रूठे
रह-रह उठते टीस ,मिले जो जख्म अनूठे
औरों का दुख देख , मनाऊं खुशियाँ  कैसे
बगल घर अन्धकार , जलाऊं दीपक  कैसे
खुशियों के हों रंग ,भरे उनकी भी झोली
 चौखट जाए सूख   ,सजे उस पर  रंगोली
मिल जाएं परिवार ,बढ़े उनकी खुशहाली 
भरो प्रेम से जख्म , मनाओ फिर  दीवाली
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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

तीन मुक्तक

उतरी रेल को पटरी पर आने में वक़्त लगता है
दूर कहीं मंजिल तो वहां जाने में वक़्त लगता है
कहो क्यूँ किस लिए किस बात की आपा धापी?
रुकी जिंदगी को रफ़्तार पाने में वक़्त लगता है
(२ )
रक्त पिपासुओं के सम्मुख चाक़ू क्या तलवार क्या
आतंकवादी कहाँ  सोचे  ,सरहद क्या दीवार क्या
शांत बस्ती को जलाना ही  जिनके मंसूबे हों
उन  दरिंदों की खातिर परम्परा क्या परिवार क्या
(३ )
जिन्दगी से  हो गया यूँ रुख्सत गिर्दाबे अलम
 मेरा सफीना जब चार हाथों से चलने लगा
 पस्त हुई मौजें फ़कत लेकर इम्तहाँ  रूबरू
 शिकस्त खाकर समंदर भी फ़ितरत बदलने लगा 
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गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

“गजरा” (चुहल) (लघु कथा )

"अरे गप्पू ये तो अपने ही साहब हैं चल चल जल्दी" ,जैसे ही  ट्राफिक लाईट पर गाड़ी रुकी महज दस साल का टिंकू  अपने छोटे भाई  गप्पू  के साथ दौड़ता हुआ कार की दाहिनी और आकर बोला “अरे साब आज  आप  इतनी जल्दी ? रावण जलता देखना है ,साहब ने जल्दी से उत्तर दिया| अच्छा "साहब गजरा" टिंकू के हाथ में गजरा देखती ही  बगल में बैठी मेमसाहब बोली अरे ले लो ,कितने का है ? चालीस रूपये का टिंकू ने तुरंत जबाब दिया ।

सुनते ही साहब तुनक कर बोले  "एक दिन में भाव बदल गए ? ये चालीस का हो गया कल तक बी ई ई फिर कहते- कहते अचानक रुक गए । "साहब जब एक दिन में मेमसाहब बदल जाती है तो भाव नहीं बदल सकते क्या"?  बात पूरी होने से पहले ही साहब ने  टिंकू के ऊपर चालीस रूपये फेंके और लगभग गजरा छीनते  हुए  गाडी बढ़ा दी ,तो टिंकू पीछे पीछे दौड़ने लगा।

गप्पू ने पूछा  "भाई जब उन्होंने पैसे दे दिए तो हम  क्यों पीछे भाग रहे हैं?  अभी मजे देखना गप्पू ,यदि ये मेमसाब इनकी घरवाली हुई तो गजरा अभी बाहर आएगा बात पूरी भी नहीं हुई की खटाक से गाडी से बाहर गजरा फेंक दिया गया  ,टिंकू ने दौड़ कर लपक लिया फिर प्रश्नवाचक भाव से देखते हुए गप्पू से आँख मारते हुए बोला "अभी तू छोटा है रे नहीं समझेगा ये बड़े लोगों की बातें!! चल अपुन भी रामलीला मैदान चलें!  
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सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

न्यारी जिंदगी


एक अलग सी ग़ज़ल जो कुछ वर्ष पहले कारगिल जंग के वक़्त लिखी थी)
                            
गर राह में मुझको ये बमबारी मिली तो क्या हुआ
बारूद से ल़बरेज चिंगारी मिली तो क्या हुआ

यूँ दर्द की बदरी मेरी आँखों में उमड़ी थी बहुत
पलकें झपकने की  फिर बारी मिली तो क्या हुआ

देखे हजारों पिंड बिखरे थे वहाँ  खूं से भरे
बस   इक नहीं  गर्दन मेरी सारी मिली तो क्या हुआ

कुर्बानियाँ दे जीत के पंचम वहाँ लहरा दिए
गर जिंदगी पर मौत यूँ न्यारी  मिली तो क्या हुआ

लिपटा लिया देखो तिरंगे ने बहुत कस के मुझे
माँ की  वो  छाती मुझे प्यारी मिली तो क्या हुआ
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गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

मैं ग़ज़ल लिखूँ या गीत लिखूँ ?

छंदों की फुहार हैं भीगे अशआर हैं
कहे कलम क्या; सृजन करूँ ?
मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ ?

जो नित नए रंग बदलते हों
पल पल में साथ बदलते हों
नूतन  परिधानों की मानिंद
हर दिन नव हाथ बदलते हों
उन अपनों को क्या लिखूँ?   
रकीब लिखूँ  या कि मीत लिखूँ   
मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ ?

यहाँ मजनू भी हैं लैला भी
और  शीरी भी फरहाद भी
यहाँ फिरते दिल बिखरे-बिखरे
 सुन रहे हैं प्रेम जिहाद भी
इस चाहत को  क्या लिखूँ?   
मैं इश्क लिखूँ  या प्रीत लिखूँ  
मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ ?

ये धर्म के बीच खड़ी होती
कभी दिलों बीच अड़ी होती
और कभी बनाती ताज महल
कभी बगड़ बीच खड़ी होती
इस वितरक को क्या लिखूँ  
दीवार लिखूँ  या भीत लिखूँ  
मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ ?

कहीं मैदान  कहीं पहाड़ हैं
और फूलों भरी  कतार हैं
कहीं कहीं ठिठुरते हैं पीपल 
कहीं बर्फ ढके चिनार हैं  
इस मौसम को क्या लिखूँ?  
ऋतु शरद लिखूँ  या शीत लिखूँ  
मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ  ?

कुछ पाया भी कभी खोया भी
कुछ काटा भी कुछ बोया भी
कभी खुशियों से दमका मुखड़ा
कभी अश्रुओं से धोया भी
इस जीवन को क्या लिखूँ?  
निज  हार लिखूँ  या जीत लिखूँ

  मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ  ?
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