बस पांच मिनट का पड़ाव
उस स्टेशन पर
देख रही हूँ उस पार किस तरह
वो उस हथौड़े को
अपने सर के ऊपर तक ले जाकर
खटाक से वार कर रहा है
उस लोहे पर जिसको
चूड़ियों से भरे दो हाथ
थाम रहे हैं दोनों और से
कितना आत्म विशवास है
उन दोनों को अपने उन हाथों पर
लोहा इच्छित आकार
लेता जा रहा है धीरे-धीरे
सोच रही हूँ क्या कोई फर्क है
इस लोहे और उन दो इंसानों में
निर्धनता के हथौड़े ने
इनके जिस्म ,व् मस्तिष्क
को भी तो ढाल दिया है एक सांचे में
तभी तो हर वार इतना अचूक
गति में कंही कोई त्रुटी नहीं
व्यवधान नहीं
एक मशीनी कल पुर्जों की तरह
दुनिया से बेखबर अपने उद्यम में
संलग्न हैं वे दोनों
मशीनी मानव
!!
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