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बुधवार, 30 मई 2012

चल वहीँ पे नीड़ बनाये हम


चल वहीँ पे नीड़ बनाये हम 
जहां सुन्दर परियां रहती हों 
जहां निर्मल नदियाँ बहती हों 
जहां दिलों की खिड़की खुली-खुली 
जहां सुगंध पवन में घुली- घुली  
जहां खुशियाँ  हंसती हो हरदम 
     चल वहीँ पे नीड़ बनाए हम 
जहां दरख़्त खड़े हों बड़े -बड़े 
हर शाख पे झूले पड़े -पड़े 
जहां संस्कृतियों का वास हो 
जहां कुटिलता का ह्रास हो 
कोई ऐसा तरु उगाये हम 
     चल वहीँ पे नीड़ बनाए हम 
जहां भ्रष्टाचार का नाम ना हो 
जहां बेईमानी का काम ना हो 
जहां तन मन के कपडे उजलें हों 
जहां स्वस्थ अशआर की ग़ज़लें हों
कोई निर्धन हों ना कोई गम 
       चल वहीँ पे नीड़ बनाए हम 
जहां भाईचारे की खाद डले
जहां माटी से सोना निकले 
जहां श्रम का फल दिखाई दे 
जहां कर्म संगीत सुनाई दे 
ऐसी फसल उगाये हम 
        चल वहीँ पे नीड़ बनाए हम 
जहां अपराधो का डंक ना हों 
जहां राजा हों कोई रंक ना हों  
जहां पुष्प  खिले कांटें ना खिले 
जहां मीत मिले दुश्मन ना मिले 
ऐसा गुलशन महकाए हम 
        चल वहीँ पे नीड़ बनाए हम 
              **********

सोमवार, 28 मई 2012

हाइकु (सिर मुंडाते ही,हास्य )


हाइकु (सर मुंडाते ही,हास्य  )
(1) 
सिर मुंडाया 
दुकान से निकले 
ओले बरसे 
()
पहली बार 
वो छतरी में आई 
बारिश थमी 
()
इम्तहान था 
लिखना शुरू किया 
कलम टूटी 
()
भागते हुए 
प्लेटफार्म पंहुचा 
ट्रेन निकली 
()
श्रृंगार हेतु 
ज्यों घूंघट पलटा
शीशा चटका 
()
मिन्नतों बाद 
बाईक पे लिफ्ट दी 
टायर फुस्स
()
गिरा आँचल 
लपक के उठाया 
थप्पड़ पड़ा 
()
जल्दी पंहुची 
पहला साक्षात्कार 
जबान सूखी 
()
पहली बार 
बाग़ में आम आये 
बन्दर घुसे 
(१०)
पहली बार 
चुनाव मैदान में 
जमानत टें
****** 

शुक्रवार, 25 मई 2012

अपना गाँव


सुबह सवेरे मंदिर में वो मन्त्रों का   जाप 
सांझ ढले दूर से आती वो ढोलक की  थाप
भोर में कानों में पड़ता वो ग्वालों का  गान 
सांझ ढले चौपालों पर  वो आल्हा की  तान 
बीच गाँव में पीपल की वो ठंडी- ठंडी छाँव
मुंडेर पे बैठे कौवो की वो लम्बी कांव-कांव
ट्यूवैलों में पानी की वो होती  भक- भक
धान कूटते मूसल की वो होती  ठक- ठक
खुली छत पे लेटे हुए वो तारों का देखना 
सर्दी की ठिठुरन में चूल्हे पर हाथ सेंकना 
मक्के की रोटी,लस्सी और सरसों का साग
गर्म-गर्म गुड और गन्ने के रस का झाग 
बहुत याद आते हैं     

मंगलवार, 22 मई 2012

कुछ क्षणिकाएं(मेरे ख़याल )


कुछ क्षणिकाएं (मेरे ख़याल )
()
कई दिनों से 
सफ़ेद चादर के फंदे ने 
गला घोंट रखा था 
आज धूप से गले  मिलकर 
खुल के रोये चिनार
()
आज सिसकियाँ सुनी
 तो पता चला 
कि इस घर की बुनियाद 
ही आसुओं में मिलाई हुई 
कंक्रीट से भरी थी 
()
हाथी दांत की चूड़ियाँ
बाजार में देखी तो ख़याल आया 
कि कहीं कल इंसान 
की अस्थियों के लाकेट
तो नहीं जायेंगे बाजार में 
()
आज क्यूँ इसकी गर्दन 
झुकी है 
कल ही तो इस फूल ने 
खिलने का वादा किया था मुझसे 
कौन आया था यहाँ ??
()
आज मेरी छाँव में बैठ लो दोस्तों 
कल तो टुकड़े- टुकड़े  होकर 
किसी शहर चला जाऊँगा 
ढूँढना हो तो ढूँढ लेना
किसी के स्वागत कक्ष में 
तुमको गोदी में बड़े प्यार से बिठाऊंगा 
()
तेरी इस ग़ज़ल के कुछ शब्दों से 
लहू रिस रहा है 
लगता है कहीं से बहुत बड़ी 
चोट खाकर आये हैं 
तभी तो दर्द से बरखे 
यूँ फडफडा रहे हैं 
()
दिल में पड़े दर्द के जालों ने कहा 
अब तो संभल लो 
पाँव के रिसते हुए छालों ने कहा 
अब रास्ता बदल लो 
*******