you are welcome on this blog.you will read i kavitaayen written by me,or my creation.my thoughts about the bitterness of day to day social crimes,bad treditions .
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शुक्रवार, 28 मई 2010
गुरुवार, 27 मई 2010
ह्रदय के उद्द्गार
ह्रदय के उद्द्गार
माना की यहाँ जलजले बेखोफ चले आते हैं
मैं रोक नहीं सकती इन ह्रदय के उद्द्गारों को .
जो मैं ऐसा जानती ,
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ
साहिल भी किनारा कर लेगा मैं कागज की नाव चलातीक्यूँ .
जो मैं ऐसा जानती ,
स्वर्ण रथ पर खड़ा लुटेरा चुप चाप चला आएगा
मैं स्वप्न दिए यूँ चोखट पे सजाती क्यूँ
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ .
जो मैं ऐसा जानती ,
एक बदली धूप चुरा लेगी मैं भीगे केश सुखाती क्यूँ
मौसम भी बगावत कर देगा मैं सर से चुनरी सरकाती क्यूँ
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ !!
माना की यहाँ जलजले बेखोफ चले आते हैं
मैं रोक नहीं सकती इन ह्रदय के उद्द्गारों को .
जो मैं ऐसा जानती ,
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ
साहिल भी किनारा कर लेगा मैं कागज की नाव चलातीक्यूँ .
जो मैं ऐसा जानती ,
स्वर्ण रथ पर खड़ा लुटेरा चुप चाप चला आएगा
मैं स्वप्न दिए यूँ चोखट पे सजाती क्यूँ
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ .
जो मैं ऐसा जानती ,
एक बदली धूप चुरा लेगी मैं भीगे केश सुखाती क्यूँ
मौसम भी बगावत कर देगा मैं सर से चुनरी सरकाती क्यूँ
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ !!
बुधवार, 26 मई 2010
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
मन का दीप जलाती हूँ
मैं अन्यमनस्क मन मंथन कर
भव्य भाव सजाती हूँ
अन्तरंग अंचल की परिक्रमा कर
हिय को किल्लोल सिखाती हूँ
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
रक्त धमनियों का लालित्य
हरदयस्पंदन का उत्कर्ष
चिंतन मनन के बिंदु पर
व्यग्र व्याकुल चंचल मन
मैं एकाकी अनुरागी
अभिलाषाओं का हार बनाती हूँ
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
कोंधती दामिनी द्रग की बैरी
मेघों की झूठी गर्जना
कर्ण पटल को छु कर मेरे
पहुंचाती है वेदना
कुछ क्षण चुपके से चुराकर
मैं स्वप्नों की हाट लगाती हूँ
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
मैं अन्यमनस्क मन मंथन कर
भव्य भाव सजाती हूँ
अन्तरंग अंचल की परिक्रमा कर
हिय को किल्लोल सिखाती हूँ
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
रक्त धमनियों का लालित्य
हरदयस्पंदन का उत्कर्ष
चिंतन मनन के बिंदु पर
व्यग्र व्याकुल चंचल मन
मैं एकाकी अनुरागी
अभिलाषाओं का हार बनाती हूँ
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
कोंधती दामिनी द्रग की बैरी
मेघों की झूठी गर्जना
कर्ण पटल को छु कर मेरे
पहुंचाती है वेदना
कुछ क्षण चुपके से चुराकर
मैं स्वप्नों की हाट लगाती हूँ
मैं अंतर्मुखी मन का दीप जलाती हूँ !!
मंगलवार, 25 मई 2010
सोमवार, 24 मई 2010
रविवार, 23 मई 2010
मानसून
मानसून की पहली बारिश
प्रकर्ति ने सर झुका लिया
बूँद जो उतरी धरा की और
जलज ने आँचल फैला दिया .
मानसून
प्रकर्ति ने सर झुका लिया
बूँद जो उतरी धरा की और
जलज ने आँचल फैला दिया .
मानसून
शनिवार, 22 मई 2010
मुझको दुनिया में आने दो
मैं तेरी धरा का बीज हूँ माँ
मुझको दुनिया में आने दो
.
मैं तेरे मातृत्व का सन्मान
नहीं कोई शगल का परिणाम
मेरा अस्तित्व तेरा दर्प है
मुझमे निहित सारा संसार .
गहन तरु की छाया में
लघु अंकुर को पनपने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो .
जंगल उपवन खलियानों में
हर नस्ल के पुहुप महकते हैं
स्वछंद परिंदों के नीड़ो में
दोनों ही लिंग चहकते हैं .
प्रकर्ति के इस समन्वय का
उच्छेदन मत हो जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे एसा
मुझको दुनिया में आने दो .
समाज की घ्रणित चालों से माँ
तुझको ही लड़ना होगा
नारी अस्तित्व के कंटक का
मूलोच्छेदन करना होगा .
तेरे ढूध पर मेरा भी हक है
दुनिया को ये समझाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो ..
मुझको दुनिया में आने दो
मुझको पौधा बन जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा मुझको दुनिया में आने दो
.
मैं तेरे मातृत्व का सन्मान
नहीं कोई शगल का परिणाम
मेरा अस्तित्व तेरा दर्प है
मुझमे निहित सारा संसार .
गहन तरु की छाया में
लघु अंकुर को पनपने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो .
जंगल उपवन खलियानों में
हर नस्ल के पुहुप महकते हैं
स्वछंद परिंदों के नीड़ो में
दोनों ही लिंग चहकते हैं .
प्रकर्ति के इस समन्वय का
उच्छेदन मत हो जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे एसा
मुझको दुनिया में आने दो .
समाज की घ्रणित चालों से माँ
तुझको ही लड़ना होगा
नारी अस्तित्व के कंटक का
मूलोच्छेदन करना होगा .
तेरे ढूध पर मेरा भी हक है
दुनिया को ये समझाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो ..
मुझको दुनिया में आने दो
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