122, 122 22 (छोटी बहर की ग़ज़ल)
जमाया हथौड़ा रब्बा
कहीं का न छोड़ा रब्बा
बना काँच का था नाज़ुक
मुकद्दर का घोड़ा रब्बा
हवा में उड़ाया उसने
जतन से था जोड़ा रब्बा
तबाही का आलम उसने
मेरी और मोड़ा रब्बा
बेरह्मी से दिल को यूँ
कई बार तोड़ा रब्बा
रगों से लहू को मेरे
बराबर निचोड़ा रब्बा
चली थी कहाँ
मैं देखो
कहाँ ला के छोड़ा रब्बा
मुकद्दर पे ताना कैसे
कसे मन निगोड़ा रब्बा
लगे ए 'राज'
तेरा ये
कहानी का रोड़ा रब्बा
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रगों से लहू को मेरे
जवाब देंहटाएंबराबर निचोड़ा रब्बा ...
वाह बेहतरीन गज़ल छोटी बहर में ... अर्थ पूर्ण है सभी शेर ...
बढ़िया है |
जवाब देंहटाएंआभार आपका ||
आदरणीया छोटी बहर में कही गई शानदार प्रस्तुति हार्दिक बधाई स्वीकारें.
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता |
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढियाँ प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंलाजवाब ग़ज़ल हेतु ढेरों दिली दाद ,,,,
जवाब देंहटाएंRecent Post दिन हौले-हौले ढलता है,
Lovely ghazal !
जवाब देंहटाएंHardik badhai Didi,aap bahut achha likhti hain
जवाब देंहटाएंगुज़ारिश : ''..महाकुंभ..''
बाह सुन्दर.
जवाब देंहटाएंदिल के पास हैं लेकिन निगाहों से बह ओझल हैं
क्यों असुओं से भिगोने का है खेल जिंदगी।
जिनके साथ रहना हैं ,नहीं मिलते क्यों दिल उनसे
खट्टी मीठी यादों को संजोने का है खेल जिंदगी।
हवा में उड़ाया उसने
जवाब देंहटाएंजतन से था जोड़ा रब्बा
बहुत खूब..