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बुधवार, 30 जुलाई 2014

वो पीपल का पेड़ (गीतिका छंद)


वृक्ष पीपल का खड़ा है, आज भी उस गाँव में
बचपना मैंने गुजारा, था उसी की छाँव में  
तीज में झूला झुलाती,गुदगुदाती  मस्तियाँ  
गीत सावन के सुनाती ,सरसराती पत्तियाँ

गुह्य पुष्पक दिव्य अक्षय,प्लक्ष इसके नाम हैं  
मूल में इसके सुशोभित, देवता के  धाम हैं
स्वास्थ वर्धक ,व्याधि रोधक,बूटियों की खान है
पूजते हैं लोग इसको  ,शुद्ध संस्कृति वान है   

गाँव का इतिहास उसकी ,तंत्रिकाओं में रमा  
मूल में उसकी किसानों,का पसीना है जमा  
गाँव की पंचायते ,चौपाल भी जमती वहाँ
गर्मियों की चिलचिलाती धूप भी थमती वहाँ


चेतना  की ग्रंथियों को, आज भी वो  खोलता
झुर्रियों में आज उसका, आत्मदर्पण बोलता
शाख पर जिसके लटकती ,आस्था की हांडियाँ
                   झुरझुरी वो ले रही हैं,देख अब कुल्हाड़ियाँ                                                        

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें (ग़ज़ल 'राज')

तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें  
फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें

तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें

तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में  हमको कई चीखें सुनाई दें

कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला
झुका देती जबीं अपनी सजाएँ जब कसाई दें

उड़े कैसे भला तितली लगे हैं घात में शातिर
ख़ुदा की रहमतें ही बस उन्हें अब तो रिहाई दें   

न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर भर दुहाई दें

करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका
सितम गर रूहें, खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें 


फ़सुर्दा =मुरझाई हुई
महफ़ूज़ =सुरक्षित
जबीं =माथा 

शनिवार, 5 जुलाई 2014

असंतुष्टि (अतुकांत )

एक बाजू गर्वीला पर्वत
अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता
क्यूँ देखेगा मेरी ओर?
नजरें झुकाना तो उसकी तौहीन है न!   
दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड  
मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर
कितना छोटा है यह
मेरी इसकी क्या बराबरी  
समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ उफ्फ!!
जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई
और मध्य में वर्गीकरण की खाई
फिर क्यूँ शिकायत अकेलेपन से!! 
अपने-अपने दायरे में

संतुष्ट क्यूँ नहीं?? 
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