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सोमवार, 23 दिसंबर 2013

कितनी कहावतें ||दोहे||


कष्ट सहे जितनी यहाँ,डालो उन पर धूल|
अंत भला सो सब भला ,बीती बातें भूल||

विद्या वितरण से खुलें ,क्लिष्ट ज्ञान के राज|
कुशल तीर से ही सधे ,एक पंथ दो काज||

कृष्ण काग खादी पहन,भूला अपनी जात|
चार दिवस की चाँदनी,फिर अँधियारी रात||

जिसके दर पर रो रहा , वो है भाव विहीन|
फिर क्यों आगे भैंसके,बजा रहा तू बीन||

सफल करो उपकार में,जीवन के दिन चार|
अंधे की लाठी पकड़ ,सड़क करा दो पार||

       
विटप बिना जो नीर के ,जड़ से सूखा जाय|
 सावन का अंधा उसे ,हरा हरा बतलाय||


बुरी बला लालच समझ ,मन का तुच्छ विकार|
जितनी चादर ढक सके ,उतने पैर पसार||

तू देखेगा और का ,भगवन तेरा हाल|
बस करके नेकी यहाँ ,दरिया में तू डाल||

             लाया क्या कुछ साथ तू ,जो ले जाए साथ|
              छूटेगा सब कुछ यहाँ ,जाना खाली हाथ||

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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

वार्षिक रिपोर्ट (लघु कथा )

"देखो-देखो दमयंती, तुम्हारे शहर के कारनामे!! कभी कोई अच्छी खबर भी आती है, रोज वही चोरी, डकैती ,अपहरण ...और एक तुम हो कि शादी के पचास साल बाद भी मेरा शहर मेरा शहर करती नहीं थकती हो अब देखो जरा चश्मा ठीक करके टीवी में क्या दिखा रहे हैं" कहते हुए गोपाल दास ने चुटकी ली।
"
हाँ-हाँ जैसे तुम्हारे शहर की तो बड़ी अच्छी ख़बरें आती हैं रोज, क्या मैं देखती नहीं थोडा सब्र करो थोड़ी देर में ही तुम्हारे शहर के नाम के डंके बजेंगे" दादी के कहते ही सब बच्चे हँस पड़े और उनकी नजरें टीवी स्क्रीन पर गड़ गई। 
साल के अंतिम सप्ताह में वार्षिक रिपोर्ट में सभी शहरों की वारदातें ,उपलब्धिया चल रही थी अतः उनके कौतुहल का ये रोज मर्रा का विषय था जो दादा-दादी के आदेशानुसार हिसाब भी रखते थे कि किसके शहर की आज अच्छी खबर आई है ।
तभी स्क्रीन पर दादा जी के शहर का नाम उभरा---- इस शहर में इस वर्ष ऐड्स के मरीजों की संख्या घट कर कुल इतनी रह गई है,दादा जी ने बच्चो से दृष्टि बचाकर दादी की तरफ गर्वीली मुस्कान के साथ देखा।
कुछ और शहरों के लेखा-जोखा दिखाने के बाद फिर दादा जी के शहर का नाम आया तो सबके कान खड़े हो गए ...अभी-अभी एक मुख्य सूचना मिली है कि इस शहर में नाबालिग के साथ बलात्कार की तीन दिनों में एक आठवीं वारदात को अंजाम दिया गया है। सुनते ही कमरे में सन्नाटा छ गया। तेरह वर्षीया गुड्डी नीची नजरे किये चुपचाप कमरे से बाहर आ गई।
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रविवार, 8 दिसंबर 2013

बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते

२१२२   २१२२  २१२२  २
- "रमल मुसम्मन महजूफ"

मुन्तज़िर अरमाँ सजी दीवार ढा देते 
ऐ खुदा हमको अगर पत्थर बना देते

इक  समंदर हम नया दिल में बसा देते 
तुम अगर  आँसू  हमें पीना सिखा देते

आजिज़ी होती न दिल में तीरगी होती
बेजुबाँ होते अगर तुम बुत बना देते

रूह प्यासी  क्यूँ ये सहरा में खड़ी  होती
प्यार का चश्मा अगर दिल में बहा देते  

दिल मुहब्बत में धड़कता ये हमारा भी
तुम अगर उल्फत भरे नगमे सुना देते

इक फ़सुर्दा फूल चाहत  में हुए तेरी 
फिर  महक जाते अगर तुम मुस्कुरा देते 

      गमज़दा बेशक़, नहीं मगरूर हम देखो 
   लौट आते, तुम अगर मुड़ कर सदा देते

          काँपती चौखट न दीवारें हिला करती
 प्यार  के आधार पर जो घर टिका देते

तल्खियां सब “राज” दिल में दफ्न कर जाती  
 ये जमीं तो क्या सितारे भी दुआ देते
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आजिज़ी=उकताहट
फ़सुर्दा=मुरझाये हुए
मुन्तज़िर=प्रतीक्षारत
तल्खियां =कडवाहट
तीरगी =अँधेरा (गम )

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

लघु कविता - विकलित आखर (चोका विधा पर आधारित)

घुप्प अँधेरा
कुछ नीरव क्षण
सीलते मेघा
टप  टप बरसे 
खुली किताब
विकलित आखर  
इतना भीगे 
तोड़े तटबंधन
हो उत्तेजित 
गहन भँवर में
मिलके  डूबे
लवणित अम्बर 
पिघला सारा
मिलकर सागर
हो गया खारा
कलम ने पीकर
प्यास बुझाई
हिय व्यथा सकल
कागज़ पर आई
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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी(गीत )

गाँव पँहुचने पर मैय्या जब पूछेगी मेरा हाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
मेरी  चिरैया कितना उड़ती
पूछे जब उन आँखों से 
पलक ना झपके उत्तर ढूंढें  
तब तू जाना टाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
पूछेगी फिर बेला चमेली
कितनी चढ़ी ऊँचाई  पर
इस घर में नही कोई सीढ़ी 
छोटी है दीवाल सखी  
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
जब वो हंसती कितनी झरती  
मुक्तक मणियाँ मुखड़े से  
समझाना यहाँ मेरी झोली    
  अब है मालामाल सखी  
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
पूछेगी उसकी अँखियों का
कजरा अब कितना खिलता  
खोल के तू अपने हाथों से
देना ये रुमाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी

  सुनके मेरी बातें अगर जो        
  मैय्या का उर भर आयें    
तुझको कसम है इस बहना की
लेना तू सम्भाल सखी

कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
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सोमवार, 18 नवंबर 2013

मेरा बचपन मेरा गाँव (दोहा गीत )




सुबह शाम को मंदिरों, में मन्त्रों का जाप
सांझ ढले जब दूर से, सुनें ढोल की थाप| 
कानों में जब भोर में,पड़े ग्वाल का गान
सांझ ढले चौपाल पर,वो आल्हा की तान| 
पीपल की वो गाँव में, ठंडी- ठंडी छाँव|
आँगन की मुंडेर पे , कौओं की वो काँव||  
निरंतर ट्यूबवैल से ,पानी की भक भाक
धान कूटते हाथ से ,मूसल की ठक- ठाक|| 
छत पे तारे देखते ,गिनते मिलकर सा
सर्दी में चूल्हे निकट , रहें सेंकते हाथ||  
मक्के की वो रोटियां ,औ सरसों का साग|
कोल्हू का वो गुड़ गरम , गन्ने का वो झाग|| 
अब तक भी भूले नहीं, आते हमको याद
गाँवों को मत छोड़ना ,सुनो सभी फ़रियाद||

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

अंतर्मन से भाव निकल कर ,शब्दों में ढल जाते हैं

एक अनोखा गीत जिसका सृजन फेसबुक पर जाने माने गीतकार आदरणीय सतीश सक्सेना जी और मेरे मध्य हुई वार्तालाप से हुआ, उन्होंने मेरी एक रचना पर प्रतिक्रिया स्वरुप इस गीत के मुखड़े को भेंट किया और आगे इस गीत को पूर्ण करने के लिए मुझे प्रेरित किया ,लीजिये हाजिर है वो गीत-----  
मुझको पता नहीं यह कैसे,गीत स्वयं लिख जाते हैं !
कुछ भावों के बादल जैसे, उमड़-घुमड़  कर आते हैं !

दिल में जन्म लिया शब्दों ने बूँदें बन कर ज्यों बरसे
 अंतर्मन से भाव निकल कर ,शब्दों में ढल जाते हैं

 पावन प्रीत कलम की पाकर , रूप गीत का  है सँवरा
रस छंदों से मुक्तक मिलकर, काव्य कलष छलकाते हैं

साँस-साँस में छुपे दर्द को ,घूँट-घूँट हैं जो पीते
मिलकर पन्नों से वो आखर ,नव जीवन जी जाते हैं

पल-पल भाव हृदय से उठकर, कलम की बाहों में आकर
कभी ग़मों  की मधुशाला या,सरस गीत बन जाते हैं

      मन के कागज़ पर लिख देते, सप्तसुरों की परिभाषा  
      स्वर  वीणा  के तार छेड़कर, झंकृत ये कर जाते हैं

दोहों छंदों की माटी में,नव अंकुर जब-जब फूटे
      गीतों की सरिता में बहकर, मन सिंचित कर जाते हैं   
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं


हादिसों से आज जिंदगियाँ गुजरती जा रही हैं
शबनमी बूंदे ज्यों ख़ारों से फिसलती जा रही हैं

लूट कर अम्नो चमन को चल पड़े हो तुम जहाँ  से
बद दुआओं की वहां किरचें बिखरती जा रही हैं

अब्र तुझको क्या मिलेगा यूँ समंदर पे बरस के
देख नदियाँ आज सहरा में सिमटती जा रही हैं

हाथ दिल पर रख लिया फिर सीलती उस झोंपड़ी ने
रश्मियाँ ऊँची हवेली में उतरती जा रही हैं

बेटियां बाहर गई तो चैन क्यों आता नहीं अब
देख कर अखबार माएं क्यों सिहरती जा रही हैं

जो जमीं शादाव रहती थी यहाँ पर कहकहों से
नफ़रतों की ये रिदाएँ क्यों पसरती जा रही हैं


या ख़ुदा पर्दों के पीछे छुप गईं तहज़ीब अब तो
सूरतें जो जुल्म गर्दों की  निखरती जा रही हैं

पर गुलामी कैद से जिसको शहीदों ने बचाया
उस कमल की 'राज' पंखुड़ियाँ उखड़ती जा रही हैं
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ख़ार =कांटे
शादाव=हरीभरी
किरचें =छोटे छोटे कण
रश्मियाँ =सूर्य की किरणें
रिदाएँ =चादरें

सहरा =रेगिस्तान