एक अनोखा गीत जिसका सृजन फेसबुक पर जाने माने गीतकार आदरणीय सतीश सक्सेना जी और मेरे मध्य हुई वार्तालाप से हुआ, उन्होंने मेरी एक रचना पर प्रतिक्रिया स्वरुप इस गीत के मुखड़े को भेंट किया और आगे इस गीत को पूर्ण करने के लिए मुझे प्रेरित किया ,लीजिये हाजिर है वो गीत-----
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मुझको पता नहीं यह कैसे,गीत स्वयं लिख जाते हैं !
कुछ भावों के बादल जैसे, उमड़-घुमड़ कर आते हैं !
दिल में जन्म लिया शब्दों ने , बूँदें बन कर ज्यों बरसे
अंतर्मन से भाव निकल कर ,शब्दों में ढल जाते हैं
पावन प्रीत कलम की पाकर
, रूप गीत का है
सँवरा
रस छंदों से मुक्तक मिलकर, काव्य कलष छलकाते हैं
साँस-साँस में छुपे दर्द को ,घूँट-घूँट
हैं जो पीते
मिलकर पन्नों से वो आखर ,नव जीवन जी जाते हैं
पल-पल भाव हृदय से उठकर, कलम की बाहों में आकर
कभी ग़मों की
मधुशाला या,सरस गीत बन जाते हैं
मन के कागज़ पर
लिख देते, सप्तसुरों की परिभाषा
स्वर वीणा
के तार छेड़कर, झंकृत ये कर जाते हैं
दोहों छंदों की माटी में,नव अंकुर जब-जब फूटे
गीतों की सरिता में बहकर, मन सिंचित कर जाते हैं
bahut badhiya....
जवाब देंहटाएंदिल में जन्म लिया शब्दों ने , बूँदें बन कर ज्यों बरसे
जवाब देंहटाएंअंतर्मन से भाव निकल कर ,शब्दों में ढल जाते हैं ...
शब्द अंतरमन से निकल कर भावों से मिल के रचना बन जाते हैं ...
सुन्दर रचना की उत्पत्ति हो गई ...
आपकी भावाव्यक्ति कमाल की है राजेश जी , बधाई !
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरेया
सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएं--
10 जून 2009 को मैंने भी कुछ ऐसी ही रचना गढ़ी थी-
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नही जानता कैसे बन जाते हैं, मुझसे गीत-गजल।
जाने कब मन के नभ पर, छा जाते हैं गहरे बादल।।
ना कोई कापी या कागज, ना ही कलम चलाता हूँ।
खोल पेज-मेकर को, हिन्दी टंकण करता जाता हूँ।।
देख छटा बारिश की, अंगुलियाँ चलने लगतीं है।
कम्प्यूटर देखा तो उस पर, शब्द उगलने लगतीं हैं।।
नजर पड़ी टीवी पर तो, अपनी हरकत कर जातीं हैं।
चिड़िया का स्वर सुन कर, अपने करतब को दिखलातीं है।।
बस्ता और पेंसिल पर, उल्लू बन क्या-क्या रचतीं हैं।
सेल-फोन, तितली-रानी, इनके नयनों में सजतीं है।।
कौआ, भँवरा और पतंग भी इनको बहुत सुहाती हैं।
नेता जी की टोपी, श्यामल गैया, बहुत लुभाती है।।
सावन का झूला हो, चाहे होली की हों मस्त फुहारें।
जाने कैसे दिखलातीं ये, बाल-गीत के मस्त नजारे।।
मैं तो केवल जाल-जगत पर, इन्हें लगाता जाता हूँ।
क्या कुछ लिख मारा है, मुड़कर नही देख ये पाता हूँ।।
जिन देवी की कृपा हुई है, उनका करता हूँ वन्दन।
सरस्वती माता का करता, कोटि-कोटि हूँ अभिनन्दन।।
बहुत सुन्दर रचना बनी ,जी न जाने कैसे ये गीत रचे जाते हैं कभी- कभी हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कोई तो है हमारे अन्दर जो ये सब करवा रहा है,कवी ,लेखक अपनी ही नहीं जमाने भर की फ़िक्र ओढ़ कर सोते है
हटाएंलिखना ही तब चाहिए जब अंतर्मन को वाह्य दुनिया से कुछ साझा करना हो...वही स्वछन्द लेखन है...
जवाब देंहटाएंबहोत खूब ..बहोत ही प्यार गीत बना है राजेशजी
जवाब देंहटाएंसच है कभी कभी ऐसा अनुभव होता है कि मैंने यह कैसे लिख डाला ???यह विचार आया कैसे ????? अचरज होता है !
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ
बहुत सुंदर ...वाह!
जवाब देंहटाएंसाँस-साँस में छुपे दर्द को ,घूँट-घूँट हैं जो पीते
जवाब देंहटाएंमिलकर पन्नों से वो आखर ,नव जीवन जी जाते हैं
बहुत सुंदर गीत....बधाई इस सुंदर रचना के लिए
मन के कागज़ पर लिख देते, सप्तसुरों की परिभाषा
जवाब देंहटाएंस्वर वीणा के तार छेड़कर, झंकृत ये कर जाते हैं
behtareen prastuti
मर्मस्पर्शी साहित्यिक आत्मानुभूत रचना साधुवाद साधुवाद कोटि कोटि आभार
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