सुबह शाम को मंदिरों, में मन्त्रों का जाप|
सांझ ढले जब दूर से, सुनें ढोल की थाप|
कानों में जब भोर में,पड़े ग्वाल का गान|
सांझ ढले चौपाल पर,वो आल्हा की तान|
पीपल की वो गाँव में, ठंडी- ठंडी छाँव|
आँगन की मुंडेर पे , कौओं की वो काँव||
निरंतर ट्यूबवैल से ,पानी की भक भाक|
धान कूटते हाथ से ,मूसल की ठक- ठाक||
छत पे तारे देखते ,गिनते मिलकर साथ|
सर्दी में चूल्हे निकट , रहें सेंकते हाथ||
मक्के की वो रोटियां ,औ सरसों का साग|
कोल्हू का वो गुड़ गरम , गन्ने का वो झाग||
अब तक भी भूले नहीं, आते हमको याद|
गाँवों को मत छोड़ना ,सुनो सभी फ़रियाद||
बहुत बढ़िया गांव का सुंदर चित्रण ......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चित्रण अब ऐसे गाँव भी नहीं रह गए .. शहरीकरण लिब्रलाइजेशन सब लील रहा है ..
जवाब देंहटाएंग्रामीण परिवेश का बहुत सुंदर चित्रण.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : मेघ का मौसम झुका है
अब तक भी भूले नहीं, आते हमको याद
जवाब देंहटाएंगाँवों को मत छोड़ना ,सुनो सभी फ़रियाद ...
लाजवाब दोहे ... अपने घर, गाँव की याद दिला दी ...
मक्के की वो रोटियां ,औ सरसों का साग|
जवाब देंहटाएंकोल्हू का वो गुड़ गरम , गन्ने का वो झाग||
कोल्हू का वो गुड़ गर्म रसगन्ने का झाग।
सुन्दर परिवेश रचा है दोहावली में।
वाह राजेश जी पूरा एक गाँव खड़ा कर दिया मानसपटल पर ...बहोत ही सुन्दर चित्रण ...सजीव ...सुन्दर...सरस ....!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !खूबसूरत रचना,। सुन्दर एहसास .
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं.