एक बाजू गर्वीला पर्वत
अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता
क्यूँ देखेगा मेरी ओर?
नजरें झुकाना तो उसकी तौहीन है न!
दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड
मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर
कितना छोटा है यह
मेरी इसकी क्या बराबरी
समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ उफ्फ!!
जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई
और मध्य में वर्गीकरण की खाई
फिर क्यूँ शिकायत अकेलेपन से!!
अपने-अपने दायरे में
संतुष्ट क्यूँ नहीं??
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आप की ये खूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएंदिनांक 07/07/2014 की नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है...
आप भी इस हलचल में सादर आमंत्रित हैं...आप के आगमन से हलचल की शोभा बढ़ेगी...
सादर...
कुलदीप ठाकुर...
हर किसी को अपना अपना अहम् रोकता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया... राजेश जी..
जवाब देंहटाएंसच्ची सीधी बात
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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