तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें
फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें
तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई
दें
कहाँ महफ़ूज़ वो माँ दूध से जिसने हमे पाला
झुका देती जबीं अपनी सजाएँ जब कसाई दें
उड़े कैसे भला तितली लगे हैं घात में शातिर
ख़ुदा की रहमतें ही बस उन्हें अब तो रिहाई दें
न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको
तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ भर भर दुहाई दें
करें फ़रियाद कब किससे जहाँ में कौन है किसका
सितम गर रूहें, खुद रब की अदालत में सफ़ाई दें
फ़सुर्दा =मुरझाई हुई
महफ़ूज़ =सुरक्षित
जबीं =माथा
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंसही कहा है
जवाब देंहटाएंतुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
जवाब देंहटाएंझुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें ..
बहुत ही गहरी ... संवेदनशील ग़ज़ल ... आज के हालात का तप्सरा है ...
वाह
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने .....
जवाब देंहटाएंउम्दा ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, स्त्री की दर्द को उकेरती कविता. सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंतुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है
जवाब देंहटाएंहमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें
तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें
राजकुमारी जी बेहद पसंद आई आपकी गज़ल।