अनवरत अन्तरिक्ष पर पीछे जन्म लेते
धूल के गुबार ने ढक
दिए सब वारि के सोते
कुम्भला गए दम घोंटू
गर्द में कोमल पौधों के पर
हाँफते हुए ,पसीनों से लथपथ
अश्वों के श्वेद कण
मिल गए खारे सागर की बूंदों से
जबरदस्त ज्वार उठा
सागर के अंतर में
मंथन से मुक्त होकर
उड़ चला वो वाष्पित आँचल
सुदूर गगन में
मेघ श्रंखला से जुड़ने
खोल दिए पट अभ्र्पारों ने
चुका दिया धरा का ऋण
खुल के बरसे मूसलाधार
वाह सच है आज खुलके बरसे मूसलाधार.....सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंवाह......
जवाब देंहटाएंसुन्दर काव्यात्मक व्याख्या....
सादर
अनु
सूरज का रथ जब दौड़ रहा था
जवाब देंहटाएंअनवरत अन्तरिक्ष पर पीछे जन्म लेते...
opening verse was so powerful..
An awesome read !!!
सूरज जब तपता है तभी बादल बरसता है...सुंदर भाव युक्त कविता !
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
क्या कहने
सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंसबकी यही कामना है कि बादल आये और धरा की प्यास बुझायें।
चुका दिया धरा का ऋण
जवाब देंहटाएंखुल के बरसे मूसलाधार
...बहुत सुन्दर प्रस्तुति....शब्दों और भावों का उत्कृष्ट संयोजन...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...शब्दों और भावों का उत्कृष्ट संयोजन...
जवाब देंहटाएंशब्दों ने वर्षा सा स्वर उत्पन्न कर दिया..
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया प्रस्तुति शब्दों के झंकार लिए .,कुछ हाव लिए ,कुछ भाव लिए ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर....
जवाब देंहटाएंमूसलाधार न सही, कुछ छींटों और कुछ बौछारों ने राहत पहुंचाई है।
जवाब देंहटाएंरिमझिम क्यों नहीं होती अब
जवाब देंहटाएंनहीं होती है या होती है
बस मूसलाधार
कर देती है आर या पार ।
सुंदर !!!
Bahut sundar....picturesque!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंवाह ... बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकल 04/07/2012 को आपके ब्लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' जुलाई का महीना ''
बहुत सुन्दर चित्र खड़ा कर दिया आँखों के सामने ... लाजवाब ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत रचना ! बड़ी सदाशयता से धरा का ऋण चुकाया मूसलाधार बारिश के रूप में ! बड़ी ही सुन्दर कल्पना की उड़ान ! आनंद आ गया !
जवाब देंहटाएंदिल का दर्द जब आँखों से बह जाये तो सकूँ तो मिलता ही है। सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंwaah...Excellent creation ma'am...very impressive !
जवाब देंहटाएंसागर के अंतर में
जवाब देंहटाएंमंथन से मुक्त होकर
उड़ चला वो वाष्पित आँचल
सुदूर गगन में
मेघ श्रंखला से जुड़ने
खोल दिए पट अभ्र्पारों ने
चुका दिया धरा का ऋण
खुल के बरसे मूसलाधार
क्या बात है,धरा का मूल ऋण
चुक जाए तो बात ही बन जाए.
ब्याज की बात तो फिर बाद की बात है.
अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,राजेश जी.
sundar prastuti
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