खाकी में इंसान
मैंने उसको वक़्त के थपेड़ों
तीव्र हवाओं के झोंकों
में भी जलते देखा
उसे पथरीली राहों में
और काँटों पर चलते देखा
गर्द के गुबार से ढके
आवरण को चीर कर चमकते देखा
सागर के धरातल को छूकर उबरते देखा
मौत के खूनी पंजो से
जीत कर निकलते देखा
उसकी बातों में आत्मविश्वास
उसकी आँखों में सच्चाई
का दर्पण देखा
एक जाँ बाज कर्मठ
इंसान को खाकी में देखा
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जी हाँ खाकी में इंसान आप ने सही समझा भारतीय पुलिस की वर्दी में इंसान की ही बात कर रही हूँ |उपर्युक्य भाव मेरे जेहन में उभर रहे थे जब मैं ये पुस्तक खाकी में इंसान पढ़ रही थी जिसके लेखक देश के जाने माने आई पी एस (आई जी )अशोक कुमार जी हैं |लेखक के विचारों से मैं इस तरह प्रभावित हुई कि मैं उनकी इस पुस्तक को उनके विचारों को आप लोगो से सांझा किये बिना नहीं रह सकी |जहां आज के वक़्त में भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पंहुचा हुआ है जब तब मीडिया में समाचार पत्रों में अपने आस पास हुई घटनाओं में पुलिस कि भूमिका और उनकी छवि को खराब करती हुई ख़बरों की कमी नहीं है ऐसे वक़्त में इस पुस्तक ने पुलिस के प्रति मेरे विचारों में
किसी हद तक बदलाव पैदा किया है सिक्के के दूसरे पहलुओं पर भी सोचने पर विवश किया है जैसे कि वर्तमान में आई व्यवस्था कि कमियों को ऊँचे पद पर आसीन अधिकारी दृढ इच्छा से निःस्वार्थ और निडर होकर किसी हद तक दूर कर सकता है और अपने प्रति लोगों का सकारात्मक नजरिया पैदा कर सकता है वही इस पुस्तक का मूल भूत उद्द्येश्य है |
अशोक कुमार जी का जन्म हरियाणा के पानीपत जिले के ग्राम कुराना में हुआ |दिल्ली के प्रतिष्ठित संसथान आई आई टी से बी टेक ,एम् टेक की उच्च शिक्षा प्राप्त करके भारतीय पुलिस सेवा में आये क्यूंकि इन के दिल ने देश की सेवा के जज्बे के कारण इनको इस लाइन को चुनने के लिए प्रेरित किया |
लेखक सबसे पहले कहता है ------पुलिस कि वर्दी में होते हुए भी इंसान बने रहना ...इतना मुश्किल तो नहीं |
लेखक पुस्तक माँ को समर्पित करते हुए कहता है माँ को ,जिन्होंने मुझे जिंदगी कि शुरुआत से ही असहाय लोगों की सहायता करने की सीख दी |
लेखक के शब्द हम पाठको के लिए -----इस किताब का उद्देश्य मेरे द्वारा किये गए कार्यों का लेखा जोखा प्रस्तुत करना नहीं है ---इसका उद्देश्य तो यह दिखाना है कि कैसे हर समस्या को मानवीय द्रष्टिकोण से देखा व् समझा जा सकता है ,उसका समाधान किया जा सकता है और कैसे समाज का द्रष्टिकोण पुलिस व्यवस्था के प्रति सकारात्मक बनाया जा सकता है |
लेखक ने अलग- अलग अध्यायों के माध्यम से डकैती ,बलात्कार ,भू माफिया ,भ्रष्टाचार ,अपहरण ,दहेज़ प्रथा आदि जैसे संगीन अपराधों का उल्लेख किया है और दिखाया है कि किस तरह सिस्टम में आने वाली अडचनों के बावजूद सिस्टम के अन्दर रहते हुए भी इन अपराधों के पीड़ितों को न्याय दिलवाया और असहाय लोगों कि आँखों के आंसू पोंछे |
आप को लेखक कि भावनाओं और सिद्धांतों कि गहराई का अंदाजा उनके इन शब्दों से लगा जाएगा जब वो नए नए अपने पद पर आसीन होते हैं और अपने आस पास कि परिस्थितियों को देखते हुए कुंठित होकर सोचते हैं ------कभी- कभी मुझे लगता था कि कहीं मैं अभिमन्यु की तरह चक्र व्यूह में तो नहीं फंस गया हूँ जहां सारे रस्ते आपस में उलझ गए हैं |
मुझे लगता है कि मैं एक चौराहे पर खड़ा कर दिया गया हूँ और कुछ लोग मेरे पांवों को अपने क्रूर पंजों से दबोचे मुझे घेरे हुए है ,ये सब मेरे परिचित चेहरे हैं ,कुछ तो मेरे विभाग के हैं ,कुछ समाज के सभ्रांत विशिष्ठ लोग हैं और कुछ लोग अपने कन्धों पर रुपयों से भरी भरी थैलियाँ लिए हैं |
पर जल्दी ही वो आत्म विशवास से भरे दिखाई देते हैं कुंठा लुप्त हो जाती है वो सोचते हैं -----यदि मामले की तह तक जाकर इंसानियत के नजरिये से सोचते हुए एक निष्पक्ष भाव से अच्छे लोगों के प्रति मित्रवत और बदमाशों के प्रति कठोरता से व्यवहार कर पुलिस और जनता के बीच समन्वय स्थापित कर पुलिसिंग की जाए तो जटिल चक्र व्यूह को भेदना मुश्किल नहीं लीक से हटकर इन्साफ की डगर नामक अध्याय में लेखक किसी घटना का वर्णन करते हुए तथा उसमे हुई पुलिस की भूमिका को मद्दे नजर रखते हुए अपने विभाग की कुछ खामियों का जिक्र भी पूरी इमानदारी से करते हैं जिससे सबक लेकर उन कमियों को सुधारने की दिशा में कदम उठाया जा सकता है -------अन्य राजकीय विभागों की तरह ही पुलिस विभाग में शिकायतों के निस्तारण की जो व्यवस्था है ,उसका सबसे दुखद और आश्चर्य जनक पहलू यह है कि सामान्यतः जिस आदमी के विरुद्ध शिकायत होती है अंततः उसी व्यक्ति को जांच अधिकारी बना दिया जाता है ||
प्राय यह देखने में आया है कि कुछ अधिकारी जन समस्याओं के प्रति संवेदन शील नहीं होते ,उनकी पकड़ में इस तरह कि बातें नहीं आती हैं |इस तरह कि जांच आख्यानों "सीन "फ़ाइल नोट लगाकर हमेशा के लिए बंद समझ लिया जाता है और पूरी त्रासदी फाइलों के ढेर के नीचे दब कर रह जाती है |
लेखक ने पंजाब में हुए नब्बे के दशक में १९९० में आतंक वाद को बहुत नजदीक से देखा उसका वर्णन करने से पहले उनको अमरता प्रीतम की ये पंक्तियाँ याद आई --
एक बार एक पंजाब की बेटी रोई थी
तो तूने हीर- राँझा जैसा महा काव्य रच डाला था
आज लाखों बेटियां रो रही हैं ---ओ दुःख की गाथा लिखने वाले उठ और अपने पंजाब को देख !
एक बार जब किसी मिशन के तहत अशोक जी स्वर्ण मंदिर के अन्दर गए तो वहां पड़े गोलियों के निशान को देख कर इनका खून खौल गया ये सोचने लगे ---की काश आतंक वादियों को बाहर निकलने के लिए कोई जादुई चमत्कार हो गया होता और पवित्रता और श्रद्धा के भव्य प्रतीक इस स्वर्ण मंदिर में यह विनाशकारी लीला देखने को ना मिलती |
वहीँ पंजाब में एक बार बाघा बार्डर पर पंहुच कर दोनों और के जवानों को देख कर लेखक कहता है कि -----एक कदम अपना भारत देश और एक कदम उधर आतंकवाद को बढ़ावा देने वालों का देश ,एक सी भाषा ,एक सी मिटटी
और एक सा दिलों का जज्बा किन्तु सालों पहले बोये गए घ्रणा के बीजों को तो काटना ही था |
लेखक पंजाब के अनुभव से प्रेरित होकर कहता है ------पंजाब के अनुभव के दौरान मैंने यह जरूर सीखा है कि यदि समर्पित ,दृढ निश्चय और कुशाग्र बुद्धि के लोग कमांडिंग पोजीशन पर बैठे हों तो आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई लड़ना अधिक आसन हो जाता है |'जेलर जेल में' अध्याय से पहले व्यंगात्मक लहजे में कहता है ----भौतिकता ,अवसरवादिता ,मूल्य हीनता सबके बोझ तले मरती हुई मानवता कोई नै बात नहीं है |
युगों -युगों से होता आया है ये तो | वहीँ पर इसी अध्याय में लेखक अपने अनुभव के आधार पर कहता है ---हमारी जेलें अपराधियों को सुधरने के लिए बनी हैं |परन्तु हाल के कुछ वर्षों में कुछ जेलें बड़े अपराधियों के लिए सुरक्षित एश्गाई बन गई हैं |अतः लेखक एक जिम्मेदार अधिकारी होने के कारण अपने सिस्टम में ये सब खामियां महसूस करता है और एक घटना के तहत जेलर को भी सलाखों के पीछे पंहुचा देता है ,सच में एक सराहनीय कदम है |
मौत के साए में जिन्दगी नामक घटना के जरिये अशोक जी ने दिखाया है की किस तरह माफिया लोग आम लोगों की जिदगी दूभर कर देते हैं किस तह इन्होने अपनी सतर्कता और कुशाग्रता से एक व्यापारी को उनके चंगुल से छुड़ाया और माफिया लोगों के जेहन में पुलिस का डर बिठाया पीड़ित लोगों को निडर होकर पुलिस को अपनी पीड़ा बतानी चाहिए और पुलिस का साथ देना चाहिए |
एक जगह पर लेखक की ये पंक्तियाँ बहुत प्रभाव शाली लगी ---कोई भी कानून उतना ही अच्छा और प्रभाव शाली होता है जितना कि उसको लागू करने वाली पुलिस |यदि पुलिस संवेदन शील होगी ,ईमानदार होगी तो कानून का दुरूपयोग नहीं हो पायेगा |
लेखक ने कुछ अध्यायों में नारी उत्पीडन के खिलाफ आवाज उठाई उनको न्याय दिलवाया तथा दोषियों को सजा दिलवाई
लेखक बैटी बेस्ट कि कविता से बहुत प्रभावित है जिसके भाव कुछ इस तरह हैं ----नारी शक्ति का रूप है ...सभी लोग शक्ति के रूप में उसकी पूजा करते हैं
फिर भी उन लोगों कि गन्दी ,ललचाई नजरों का सामना करना पड़ता है ....और यह भी दिखाना पड़ता है कि उसे फर्क नहीं पड़ता |
देखिये लेखक के इन शब्दों में कितनी सच्चाई और गहराई को देखा जा सकता है ----मैं किसी भी रूप में पुलिस द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार को माफ़ करने के पक्ष में नहीं हूँ |पुलिस को यदि अपनी छवि सुधारनी है तो उसे इस छोटे स्तर पर किये जा रहे भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगाना होगा |पहले से ही पीड़ित और गरीब व्यक्ति के प्रति तो विशेष रूप से और भी संवेदन शील बनना होगा ,जिससे उनमे पुलिस के प्रति विशवास की भावना जाग्रत हो सके | ये पंक्तिया इस पुस्तक का अथवा लेखक के द्रष्टिकोण का सार है और इस पंक्ति को भी देखिये ---पुलिस की बीस साल की सेवा के बाद मेरा मानना है की जिन आदर्शों के साथ मैंने पुलिस की सेवा शुरू की थी ,उनमे से बहुत को प्राप्त करना मुश्किल तो है परन्तु असंभव नहीं |
अंत में मैं यही कहूँगी कि इतने उच्च पद पर आसीन एक व्यक्ति का ह्रदय इतना संवेदन शील हो सकता है जिसमे अपने बल पर लीक से हटकर सोचने और उस पर चलने कि सामर्थ्य हो तो यह पूरी पुलिस महकमे के लिए एक सबक का विषय बन जाता है जिससे आम जनता भी बेख़ौफ़ होकर अपने अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकती है और पुलिस पर भरोसा कर सकती है भ्रष्टाचार का मुकाबला कर सकती है अन्दर के डर को समाप्त कर पुलिस का साथ देकर हर अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकती है | इतना तो हम लेखक लोग भी जानते हैं कि जब कोई अपना अनुभव लोगों से बांटता है तो वो उसके दिल कि गहराइयों से निकले शब्द होते हैं अतः अशोक कुमार जी की पुस्तक के शब्दों का ,भावनाओं का हम सब सम्मान करते हैं और कामना करते हैं की आगे भी सब का इसी तरह मार्ग दर्शन करते रहें जय हिंद |
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"खाकी में इंसान'" पुस्तक की बहुत सुन्दर समीक्षा की है ..रचित पंक्तियाँ भी बहुत सुन्दर है..खाकी वर्दी् तूझे सलाम..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समीक्षा...
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन...
सादर
अनु
rajesh kumari ji 'khaki mein insaan' pustak ki mann ko choo lene wali samiksha padh kar main sikke ke doosre ke pahloo ko dekh payi jisse se mere vicharon mein police ki kharaab chavi ko badal diya. itne bade kathin sawaalon ke jabab bhi appne iss mein bade hi saral shabdon mein samjhaye hain. main bhi appke iss doosre pahloo se sahmat hoon ki khaki mein bhi insaan baste hain.
जवाब देंहटाएंआपकी कलम में इन्साफ तो है ही !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा,,, खाकी में इंसान' पुस्तक की,,,,,बधाई राजेश कुमारी जी,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST काव्यान्जलि ...: रक्षा का बंधन,,,,
सकारात्मक चर्चा अच्छी रही।
जवाब देंहटाएंखाकी में इंसान'" पुस्तक की बहुत सुन्दर समीक्षा की है .
जवाब देंहटाएंबधाई ||
रविकर फैजाबादीAugust 7, 2012 8:38 AM
जवाब देंहटाएंखाकी में इंसान
खाकी के प्रति नजरिया, सकते बदल अशोक |
शोक हरें निर्बलों का, दें दुष्टों को ठोक |
दें दुष्टों को ठोक, नोक पर इक चाक़ू के |
हरें शील, धन, स्वर्ण, हमेशा खाकी चूके |
सज्जन में भय व्याप्त, बढे दुर्जन की ताकत |
पुलिस सुधर गर जाय, मिले रविकर को राहत |
प्रभावी समीक्षा
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया
पुलिस को विलेन के रूप में खड़ा करने के लिए राजनीतिग लोग जितना जिम्मेवार हैं उतना कोई नहीं .... अपने स्वार्थ के लिए ये इनका इस्तेमाल करते हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावी रचना और समीक्षा है खाकी की ... इसके अनदेर भी इंसान रहते हैं ...
''खाकी में इंसान'' पुस्तक की समीक्षा आपकी कलम से पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा ... आपने लेखक की संवेदनशीलता कर्तव्यनिष्ठा के हर पहलू को बहुत ही विस्तार से वर्णित किया है ... आपका बहुत - बहुत आभार इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए
जवाब देंहटाएंhan kabhi kabhi sonch see pare insan hota hai jaisi kalpna jiski chhavi ko lekar rahti hai wo askar wo nahi hoti.......achhi lagi khakhi me chhipe insan ko jankar .....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा की है। हर सिक्के के दो पहलू हैं । और दोनो खोटे नहीं होते हैं !
जवाब देंहटाएंजय हिंद!!
जवाब देंहटाएंbehtreen samiksha ..........bahut badhiya .aana sartahk raha aapke blog par ...shukriya
जवाब देंहटाएंnispaksh smiksha,acchi v sarahniy prastuti
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