खूँटी पर लटका दिया ,भीतर नहीं प्रकाश
पर मेरे तुम काट कर ,निगल गए आकाश
आँखों में बरसात है ,मौसम भी है सर्द
देख गगन को हो रहा ,इन पांखों में दर्द
तिल-तिल घिसकर गात,जो सप्त वाहन ठेला
जल बिन औ बिन वात,वो निपट खड़ा अकेला
खुशियों की नहीं हाट
,दर्द भरा यहाँ मेला
क्यों होता
हैरान, यही जीवन का
खेला
हुआ कहाँ कब बेसुरा ,रिश्तों का संगीत।
उठते-उठते कब उठी , भीतर- भीतर भीत ॥
झूठे हैं रिश्ते यहाँ ,झूठी दिल की प्रीत|
हे मानव समझा रही ,कलयुग की ये रीत ||
सुन्दर भाव-
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति-
आभार दीदी
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति !
latest post नसीहत
बहुत सुन्दर भावमय मुक्तक ...
जवाब देंहटाएंआनंद आ गया ...
हुआ कहाँ कब बेसुरा
जवाब देंहटाएं,रिश्तों का संगीत।
उठते-उठते कब उठी ,
भीतर- भीतर भीत ॥
बहुत सुंदर !
बहुत बढ़िया,सुंदर प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : फूल बिछा न सको
वाह बहुत ही सुन्दर भावों को उकेरा है आपने ..
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी और सार्थक पंक्तियाँ
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