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गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

तीन मुक्तक

उतरी रेल को पटरी पर आने में वक़्त लगता है
दूर कहीं मंजिल तो वहां जाने में वक़्त लगता है
कहो क्यूँ किस लिए किस बात की आपा धापी?
रुकी जिंदगी को रफ़्तार पाने में वक़्त लगता है
(२ )
रक्त पिपासुओं के सम्मुख चाक़ू क्या तलवार क्या
आतंकवादी कहाँ  सोचे  ,सरहद क्या दीवार क्या
शांत बस्ती को जलाना ही  जिनके मंसूबे हों
उन  दरिंदों की खातिर परम्परा क्या परिवार क्या
(३ )
जिन्दगी से  हो गया यूँ रुख्सत गिर्दाबे अलम
 मेरा सफीना जब चार हाथों से चलने लगा
 पस्त हुई मौजें फ़कत लेकर इम्तहाँ  रूबरू
 शिकस्त खाकर समंदर भी फ़ितरत बदलने लगा 
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12 टिप्‍पणियां:

  1. उतरी रेल को पटरी पर आने में वक़्त लगता है
    दूर कहीं मंजिल तो वहां जाने में वक़्त लगता है
    कहो क्यूँ किस लिए किस बात की आपा धापी?
    रुकी जिंदगी को रफ़्तार पाने में वक़्त लगता है,,,

    बहुत ही उम्दा प्रभावी मुक्तक ,,,!

    RECENT POST -: हमने कितना प्यार किया था.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (25-10-2013)
    ऐसे ही रहना तुम (चर्चा मंचः अंक -1409) में "मयंक का कोना"
    पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बढ़िया और सुंदर रचना , बस उर्दू का शब्दार्थ और देते तो अच्छा होता !
    आभार !

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