यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

क्यों तुम ऐसे मौन खड़े ?



 मेरे प्रांगण के राजा

क्यों  तुम ऐसे मौन खड़े 

झंझावत जो सह जाते थे 

जीवन के वो बड़े बड़े 

क्यों तुम ऐसे मौन खड़े ?

बरसों से जो दो परिंदे 

इस कोटर  में रहते थे 

दर्द अगर उनको  होता 

तेरे ही  अश्रु बहते थे 

उड़ गए वो तुझे छोड़ कर 

अपनी धुन पर अड़े अड़े

क्यों  तुम ऐसे मौन खड़े ?

इस जीवन की रीत यही है 

सुर बिना संगीत यही है  

उनको इक दिन जाना था 

जीवन  धर्म निभाना था 

राजा जनक भी खड़े रह गए 

आँसू नयन से झड़े झड़े 

क्यों तुम ऐसे मौन खड़े ?

इकला ही है आना- जाना 

चंद दिनों का है ठिकाना 
जीवन के इस रंग मंच पर 

आकर बस किरदार निभाना 

कुम्भकार की माटी जैसे 

बनते मिटते सभी घड़े 

क्यों तुम ऐसे मौन खड़े ? 
********************


14 टिप्‍पणियां:

  1. ऐ मेरे प्रांगण के राजा
    क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े
    झंझावत जो सह जाते थे
    जीवन के वो बड़े बड़े
    क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
    बरसों से जो दो परिंदे
    इस कोतर में रहते थे
    दर्द अगर उनको होता
    तेरे ही अश्रु बहते थे
    उड़ गए वो तुझे छोड़ कर
    अपनी धुन पर अड़े अड़े
    क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?

    हाँ यही रीत है जीवन की -पक्षी बड़े होते हैं उड़ जाते हैं ,चिड़िया चिरोंटा मस्त रहते हैं फिर भी ,होमोसेपियंस फिर क्यों पस्त रहतें हैं

    दाना चुगना उड़ जाना ,है कितना राग पुराना

    और यह भी पत्ता टूटा डार (डाल )से ,ले गई पवन उड़ाय ,अब के बिछुड़े कब मिलें ,दूर पड़ेंगे जाय .

    विमोह कैसा जो चला गया उसे भूल जा

    कृपया कोटर और क्यों शब्द का इस्तेमाल करें .शुक्रिया और बधाई इस खूबसूरत रचना से ,दिन का आगाज़ आज इसी से हुआ है यहाँ कैंटन में प्रात :है अभी .

    जवाब देंहटाएं
  2. हार्दिक आभार वीरेंद्र कुमार शर्मा जी त्रुटी सुधार दी है|

    जवाब देंहटाएं
  3. ऐ मेरे प्रांगण के राजा
    क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े
    झंझावत जो सह जाते थे
    जीवन के वो बड़े बड़े
    क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
    बरसों से जो दो परिंदे
    इस कोतर में रहते थे
    दर्द अगर उनको होता
    तेरे ही अश्रु बहते थे
    उड़ गए वो तुझे छोड़ कर
    अपनी धुन पर अड़े अड़े
    क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?bahut sundar prastiti

    जवाब देंहटाएं
  4. कुम्भकार की माटी जैसे

    बनते मिटते सभी घड़े

    क्यों तुम ऐसे मौन खड़े ?

    sunder saarthak rachna ke liye bahut badhai rajesh ji
    saadar

    जवाब देंहटाएं
  5. कुछ तो धीरे धीरे बोलों,
    संवादों को कहकर खोलो।

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहद सहृदय रचना...बधाइयाँ...

    जवाब देंहटाएं
  7. जीवन की रीत यही है मागर कुछ पल को मौन कर ही देती है....जीवन का राग रुकता तो है ही क्षण भर को सही...

    बहुत सुन्दर रचना राजेश जी...
    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  8. वाह!
    आपकी इस ख़ूबसूरत प्रविष्टि को कल दिनांक 15-10-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-1033 पर लिंक किया जा रहा है। सादर सूचनार्थ

    जवाब देंहटाएं
  9. टा टा कर कर के थके, जब जब दायाँ हाथ ।

    बाएं ने कह ही दिया, फिर फिर भोले-नाथ ।

    फिर फिर भोले-नाथ, दर्द पूछो तो दिल का ।

    इतना ही था साथ, करे रोकर दिल हल्का ।

    कर ये नाटक बंद, डाल मुख में दो दाने ।

    बचे हुवे दिन चंद, चले जाएँ बेगाने ।।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत ही सुन्दर कविता ,
    बहुत सुन्दर और बहुत गहरी |

    सादर

    जवाब देंहटाएं