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गुरुवार, 10 जून 2010

बाँहों में बाहें थाम प्रिये हम कितनी दूर निकल आये

बाँहों में बाहें थाम प्रिये हम कितनी दूर निकल आये



ना अब कुंठाओं के घेरे हैं ना मायुसिओं के साए


मैं पदचाप सुनु तेरी तू पदचाप सुने मेरी


अधर मगर चुपचाप रहें बोले धड़कन तेरी मेरी


ये पल कितना रमणीय है चल इसके आगोश में जाएँ


बाँहों में बाहें .......


देखो क्या मंजर है प्रिये नभ धरा का मस्तक चूम रहा


तिलस्मी हो गयी दिशाए नशे में तरण तरण झूम रहा


रजनी हौले से आ रही तारों भरा आँचल फेलाए


बाँहों में बाहें ......


अपनी बगिया के फूल क्यूँ कुम्हलाने लगे हैं


घनघोर संमोहन के बादल क्यूँ छाने लगे हैं


आ दोनों मिलकर आँखों से उनके लिए सावन बरसायें


बांहों में बाहें .......


उनकी नजरें कुछ पूछ रही है हमको तारों में खोज रही हैं


स्वप्न बनकर आ हम दोनों उनकी निद्रा में बस जाएँ


बाहों में बाहें .......


अब तो अपने साए भी लौट गए हैं


जीवन के बंधन खोल गए हैं


चल हाथ पकड़ मेरा प्रिये अब हम अपने पथ पर बढ़ जाएँ


मैं पदचाप सुनु तेरी तू पदचाप सुने मेरी


बाहों में बाहें थाम प्रिये हम कितनी दूर निकल आये !

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