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मंगलवार, 1 जून 2010

अब तुम ठहर क्यूँ नहीं जाते

I have written this poem in 1995.it was published in yantriki,d.doon.


अब तुम ठहर क्यूँ नहीं जाते 
संदिघ्ता के घेरे में घिरे ,अपने अस्तित्व को खोजते


मंजिल की चाह में आगे बढ़ते ,अर्ध विक्षिप्त से तुम


खुद मंजिल बन क्यूँ नहीं जाते!!


ऊँचे नीचे कंटकों से भरे पथ पर चलने वाले 
,
रेत की तपती धूप पर अबोध शिशु की तरह


बाद हवास से दोड़ने वाले तुम


खुद सघन वृक्ष बन क्यूँ नहीं जाते !!


 रंगहीन जीवन में सुख सम्रधि  के रंग भरने में संलग्न



  लोलुपता की तुलिका चलाते हुए



  सप्त रंगों में डूबे हुए चित्रकार से तुम



         स्वयं इन्द्रधनुष बन क्यों नहीं जाते !



अंधेरों के बढ़ते हुए काले सायों से घबराते



नीरवता के सन्नाटे में अपनी ही पदचाप से



बढती हुई दिल की धडकनों को सुनते



रौशनी की एक किरण को तरसते भिक्षुक से तुम



एक उज्जवल सितारा बन क्यों नहीं जाते !



निरर्थक निर्वस्त्र जीवन को



सार्थकता के परिधान में लपेटते



वक्त के थपेडों से खुद को बचाते हुए



जलते शोलों से तप्त राहों पर



बच बच के निकलने वाले तुम



खुद ओंस की बूँद बन क्यों नहीं जाते.



अभिलाषाओं की छितरी हुई कलिओं को समेटते



स्वप्नों के हार बनाते



धूलि धूसरित कंटकों से भरे कदमो के



रिसते हुए  लहू को अनदेखा कर



भागते हुए अनथके जिहिर्शु पथिक तुम



तुम्हारी थकित परछाई तुम्हे पुकार रही है



जीवन के अंतिम सत्य को समझा  रही है



अब तुम ठहर क्यों नहीं जाते !!

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