नस नस में
टीस रही दरारे
नैना बरसे
पर नहीं बरसे
पाखंडी तुम
व्यथित चित्त
सीली सीली दीवारें
निशा पिघले
पर नहीं पिघले
पाखंडी तुम
अग्नि समक्ष
भरे सात वचन
कहाँ बदले
पर बदल गए
पाखंडी तुम
मैं बनी मीन
रिश्तों की ग्रंथियों
में फंसी रही
केवल मुक्त हुए
पाखंडी तुम
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बहुत सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंरिश्तों की ग्रंथियों
जवाब देंहटाएंमें फंसी रही
केवल मुक्त हुए
पाखंडी तुम
- यही होता आया आया है !
गहन भाव लिए सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंगहन भाव ....
जवाब देंहटाएंकौन रहे उड़ता उडता सा,
जवाब देंहटाएंउसने बाँध लिया सबको ही।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (14-06-2013) के "मौसम आयेंगें.... मौसम जायेंगें...." (चर्चा मंचःअंक-1275) पर भी होगी!
सादर...!
रविकर जी अभी व्यस्त हैं, इसलिए मंगलवार की चर्चा मैंने ही लगाई है।
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
गहन भाव लिए काफी सुन्दर
जवाब देंहटाएंसाभार !
बहुर दुन्दर प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंlatest post: प्रेम- पहेली
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