जैसे भागती जा रही थी जिंदगी
पीछे छूटते जा रहे थे वो लम्बे छोटे दरख़्त
पता नहीं मैं तेज भाग रही थी
या वो दरख़्त उलटी दिशा में
मानो कोई होड़ लगी हो
खिड़की पर कुहनी के सहारे
अपनी ठोड़ी टिकाये जी रही थी उन पलों को
आँखों की पुतलियाँ समझो दायें से बाएं
भाग रही थी द्रश्यों के साथ
न खुद की परवाह ना मंजिल का इन्तजार
जैसे किसी सम्मोहन शक्ति
ने बाहुपाश में जकड लिया हो
कदम दर कदम द्रश्य ,खुशबू
शक्लें पहनावे भी बदल रहे थे
कभी झोंपड़ी कभी ईमारत
कभी गाँव कभी शहर जैसे मेरे साथ
लुका छिपी का खेल खेल रहे हों
नजर ,दिमाग और बाह्य मंजर
का अटूट रिश्ता बन चुका था
अनायास कोई जानी पहचानी खुशबु का झोंका
मेरे पास आया और मेरी तन्द्रा से छेड़ करने लगा
लगा बाहर का मौसम जाना पहचाना है
बाहर कुछ छोटे छोटे बच्चे हाथ के
इशारे से मुझे बुला रहे हैं ,जाने पहचाने चेहरे लगे
मानो कोई बेसूझ साया मेरा आँचल
पकड़ कर मुझे उस तरफ खींचे ले जा रहा है
अचानक एक जोर के झटके थोड़ी देर के लिए गाड़ी रूकती है
मेरी तन्द्रा भंग होती है
मैं डिब्बे में आये चाय बेचने वाले से
पूछती हूँ ये कौन सी जगह है
सुनकर हतप्रभ रह जाती हूँ
मेरी ट्रेन मेरे मायके के शहर से होकर गुजर रही है
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यादों की लहर सँजोती सुंदर पंक्तियाँ ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ।
बहुत खूबसूरत भाव संजोये हैं
जवाब देंहटाएंअरे तो उतर जाइए वहीं......
जवाब देंहटाएंदो पल जी आइये :-)
सादर
अनु
कभी कभी अनु जी जो इंसान चाहता है मजबूरी वश कर नहीं पाता दिल तो बहुत किया पर आगे जाना था सो मन मसोस कर रह गई और पेपर पर कुछ लिखने बैठ गई जो आज आप पढ़ रही हैं
हटाएंहतप्रभ क्यों ? सफर के पड़ाव तो पता ही होंगे .... वैसे मायके की खुशबू ऐसी ही होती है ... सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसफ़र, जो दे गया कुछ यादें ..बस यादे .. और कहीं खो गया.
जवाब देंहटाएंसुंदर सफर ये रेल का, देता मन को हर्ष |
जवाब देंहटाएंजगह एक-एक गुजर गए, देख अर्श से फर्श ||
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (05-12-12) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
सूचनार्थ |
वो सफ़र
जवाब देंहटाएंजैसे भागती जा रही थी जिंदगी
पीछे छूटते जा रहे थे वो लम्बे छोटे दरख़्त
पता नहीं मैं तेज भाग रही थी
या वो दरख़्त उलटी दिशा में
मानो कोई होड़ लगी हो
खिड़की पर कुहनी के सहारे
अपनी ठोड़ी टिकाये जी रही थी उन पलों को
आँखों की पुतलियाँ समझो दायें से बाएं
भाग रही थी द्रश्यों के साथ ( दृश्यों के साथ )
न खुद की परवाह ना मंजिल का इन्तजार
जैसे किसी सम्मोहन शक्ति
ने बाहुपाश में जकड लिया हो (जकड़ )
कदम दर कदम द्रश्य ,खुशबू (दृश्य ,खुश्बू )
शक्लें पहनावे भी बदल रहे थे
कभी झोंपड़ी कभी ईमारत (इमारत )
कभी गाँव कभी शहर जैसे मेरे साथ
लुका छिपी का खेल खेल रहे हों
नजर ,दिमाग और बाह्य मंजर
का अटूट रिश्ता बन चुका था
अनायास कोई जानी पहचानी खुशबु का झोंका (खुश्बू )
मेरे पास आया और मेरी तन्द्रा से छेड़ करने लगा
लगा बाहर का मौसम जाना पहचाना है
बाहर कुछ छोटे छोटे बच्चे हाथ के
इशारे से मुझे बुला रहे हैं ,जाने पहचाने चेहरे लगे
मानो कोई बेसूझ साया मेरा आँचल
पकड़ कर मुझे उस तरफ खींचे ले जा रहा है
अचानक एक जोर के झटके थोड़ी देर के लिए गाड़ी रूकतीहै
मेरी तन्द्रा भंग होती है
मैं डिब्बे में आये चाय बेचने वाले से
पूछती हूँ ये कौन सी जगह है
सुनकर हतप्रभ रह जाती हूँ
मेरी ट्रेन मेरे मायके के शहर से होकर गुजर रही है
बहुत सुन्दर बिम्ब है झरोखा है यादों को जो वक्त की दीवार टेल दब गईं .
rajesh ji tandra to bhang honi hi thi . विचारणीय सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार .!
जवाब देंहटाएंदहेज़ :इकलौती पुत्री की आग की सेज
बहुत खूबसूरत भाव संजोये हैं
जवाब देंहटाएंअपना शहर ... अपने लोगों के बीच ये अपने से ख्याल भी
जवाब देंहटाएंअनुपम भाव संजोये हुये
लाजवाब प्रस्तुति
शानदार.
जवाब देंहटाएंबहुत खूबशूरत सुंदर भावमय रचना,,,,
जवाब देंहटाएंrecent post: बात न करो,
यादों को स्थानों से जोड़ती ट्रेन..
जवाब देंहटाएंवाह ... पुरानी खुशबू खींचती है अपनी तरफ ... फिर मायका तो ....क्या कहने ...
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