प्रेम दिवस
ख़त्म हो दिलो की कड़वाहट
हर शख्स के चेहरे पे हो मुस्कुराहट
तो प्रेम दिवस हो |
करते रहो प्रयास
ना रहे कोई उदास
सागर में हो मिठास
तो प्रेम दिवस हो |
हर प्रीत में मधुरस हो
हर बंधन भाव सरस हो
एक प्रेम ही सर्वस्व हो
तो प्रेम दिवस हो |
हिय में पवित्रता का वास हो
प्रतिज्ञा में दृढ विशवास हो
हर दिन यूँ ही ख़ास हो
तो प्रेम दिवस हो |
सब को प्रेम दिवस मुबारक
आप की दुआ पूरी हो !
जवाब देंहटाएंसब को शुभकामनाएँ !
मधुर कामनाएं..
जवाब देंहटाएंआपको भी शुभकामनाएँ प्रेमदिवस की...
बेहतरीन प्रस्तुति... प्रेमदिवस की शुभकामनाएँ ..
जवाब देंहटाएंआपको भी शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंसुन्दर..!
जवाब देंहटाएंकरते रहो प्रयास
जवाब देंहटाएंना रहे कोई उदास
सागर में हो मिठास
तो प्रेम दिवस हो |...............hamesha ki tarah khubsurat .prem ki bhavna ....aapko hamari shubhkamna .
बहुत ही सुन्दर विचार हैं ....आपको भी शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंप्रेम की धारा बहा दी आपने । शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएंbahut achchi lagi.....
जवाब देंहटाएंप्यार की खुबसूरत अभिवयक्ति........
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना,प्यार की सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंMY NEW POST ...कामयाबी...
सभी प्रेम से परिपूर्ण हों, सभी प्रसन्न रहें..
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर... प्रेमपगी अभिव्यक्ति.....
जवाब देंहटाएंहर बंधन भाव सरस हो
जवाब देंहटाएंएक प्रेम ही सर्वस्व हो
तो प्रेम दिवस हो |
हिय में पवित्रता का वास हो
प्रतिज्ञा में दृढ विशवास हो
हर दिन यूँ ही ख़ास हो
तो प्रेम दिवस हो |
wah kya khoob likha hai .....pavitrta ke bina sachhe prem ki kalpan karan vyarth hai ....bahut hi sundar rekhankan .....sadar badhai.
सुन्दर प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंकृपया इसे भी पढ़े-
नेता- कुत्ता और वेश्या (भाग-2)
प्रेम दिवस के असली मायने समझाती रचना ... मज़ा आ गया ..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंइतिहास का अवलोकन अतीत से होता हुआ वर्तमान की कभी रैखिक कभी क्षैतिज कभी तिभुजाकर कभी आवृत्ति में कई मानसिक कोण बनाने पर मजबूर कर देता है.क्या करें यह मिमान्षा की विडंबना ही है,अतीत का विश्मरण कैसे संभव है?वह तो आत्मा है जो देह रूप में व्यक्त कर रही है .हम सभी की सदिच्छाओं की सम्पूर्ति एवं उसकी अभिव्यक्ति ही लोकतंत्र का श्रृंगार तत्व है .प्रभुसत्ताधारी हमारी सदिच्छाओं की अभिव्यक्ति है.अगर वह स्वयम को अधिष्ठाता मान बैठे?यह उस प्रभुसत्ताधारी का दोष है न की सदिच्छाधारियों का?लोक परम्परा एवं इतिहास परस्पर अंतक्रिया करते रहते है .यह भिन्न- भिन्न अवसरों पर दीखता भी है.राजश्र्यी इतिहास की भित्ति इतनी कमजोर होती है की वह लोक परम्परा का तत्व नहीं बन पाती,इतिहास समग्रता में होता है जो जनश्रयी होता है. तभी तो परम्पराएं संसृत की सरिता बन भिन्न-भिन्न भौगौलिक क्षेत्रों एवं विविधता में संस्कृति को जीवंत किये है.यह सही है की प्रभुसत्ताधारी को जनइच्छाधारी अपनी उपस्थिति दिखातें रहें,कभी शाबाशी,कभी उपहास,कभी आलोचन ताकि प्रभुसत्ताधारी निरंकुश न हो ना ही जैनैतिहास के साथ छेड छाड कर सकने का दुस्साहस कर सके ............सादर
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