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मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

मुझको दुनिया में आने दो


मैं तेरी धरा का बीज हूँ माँ
मुझको पौधा बन जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो
.
मैं तेरे मातृत्व का सन्मान
नहीं कोई शगल का परिणाम
मेरा अस्तित्व तेरा दर्प है
मुझमे निहित सारा संसार .

गहन तरु की छाया में
लघु अंकुर को पनपने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो .

जंगल उपवन खलियानों में
हर नस्ल के पुहुप महकते हैं
स्वछंद परिंदों के नीड़ो में
दोनों ही लिंग चहकते हैं .
प्रकर्ति के इस समन्वय का
उच्छेदन मत हो जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे एसा
मुझको दुनिया में आने दो .

समाज की घ्रणित चालों से माँ
तुझको ही लड़ना होगा
नारी अस्तित्व के कंटक का
मूलोच्छेदन करना होगा .
तेरे ढूध पर मेरा भी हक है
दुनिया को ये समझाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो ..


मुझको दुनिया में आने दो

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत संवेदनशील रचना ...सन्देश देती हुई ..

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  2. बहुत बढ़िया!
    इसी तरह की एक रचना मंने भी पिछले वर्ष लिखी थी!
    "माँ मुझको भी तो अपनी दुनिया में आने दो!"

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  3. वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
    आप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
    बधाई.

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  4. ..बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया..

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  5. aaj ke samaj ka kitna kathor saty.....kitni saralta ke saath likh din...wah.

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  6. बहुत सशक्त रचना!
    बैसाखी के साथ अम्बेडकर जयन्ती की भी शुभकामनाएँ!

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