मैं तेरी धरा का बीज हूँ माँ
मुझको पौधा बन जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो
.
मैं तेरे मातृत्व का सन्मान
नहीं कोई शगल का परिणाम
मेरा अस्तित्व तेरा दर्प है
मुझमे निहित सारा संसार .
गहन तरु की छाया में
लघु अंकुर को पनपने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो .
जंगल उपवन खलियानों में
हर नस्ल के पुहुप महकते हैं
स्वछंद परिंदों के नीड़ो में
दोनों ही लिंग चहकते हैं .
प्रकर्ति के इस समन्वय का
उच्छेदन मत हो जाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे एसा
मुझको दुनिया में आने दो .
समाज की घ्रणित चालों से माँ
तुझको ही लड़ना होगा
नारी अस्तित्व के कंटक का
मूलोच्छेदन करना होगा .
तेरे ढूध पर मेरा भी हक है
दुनिया को ये समझाने दो
नहीं खोट कोई मुझमे ऐसा
मुझको दुनिया में आने दो ..
मुझको दुनिया में आने दो
बहुत संवेदनशील रचना ...सन्देश देती हुई ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंइसी तरह की एक रचना मंने भी पिछले वर्ष लिखी थी!
"माँ मुझको भी तो अपनी दुनिया में आने दो!"
वाह पहली बार पढ़ा आपको बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंआप बहुत अच्छा लिखती हैं और गहरा भी.
बधाई.
..बहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....मेरा ब्लॉग पर आने और हौसलाअफज़ाई के लिए शुक़्रिया..
जवाब देंहटाएंaaj ke samaj ka kitna kathor saty.....kitni saralta ke saath likh din...wah.
जवाब देंहटाएंबहुत सशक्त रचना!
जवाब देंहटाएंबैसाखी के साथ अम्बेडकर जयन्ती की भी शुभकामनाएँ!