सहस्त्रों झूठ के कर्कश आवरण के नीचे दबा हुआ
अंतरउर में होने वाले अंतर्द्वंद से जूझता हुआ
छटपटा रहा हूँ!
गहन अन्धकार से बाहर निकलने को आतुर,
धीरे धीरे रेंगता हुआ द्रगों के पारदर्शी कपाटों के पीछे से
लाचार बेबसी से झांकता हुआ
किसी को दिखाई दे जाता हूँ
फिर अपने बैरी को पस्त हुआ देख अनायास ही मुस्कुरा उठता हूँ !
और अपने वजूद को महसूस करने लगता हूँ !
मेरा स्पंदन अबोध बालक में निहित है
जब मैं उसकी आँखों और मुख से मुखरित होता हूँ !
परन्तु न जाने कब झूठ का नाग अपना फन फैलाकर
मेरी छाती पर बैठ जाता है और मेरे अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है !
मेरी विजय उस दिन होती है
जब मानव की साँसों की टूटती हुई डोर का अवलंबन लेकर
अपने अरि का हनन कर प्रकट होता हूँ !
पर मैं भ्रमित हूँ
मेरे अरि का कद मुझसे कैसे इतना बड़ा हो गया
जो मुझे कुचल कर खुली हवा में सांस लेता है ,
और मैं गहन कारागार में बंद होकर सिसकता हुआ
यह सोचता हूँ कि मेरा धवल अस्तित्व पूर्ण कालिक कब होगा !!!
आपकी कविता में व्यापक संदेश निहित है। इसमें जो भावाभिव्यक्ति हुई है उससे सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में व्याप्त विरोधाभास रेखांकित हुए हैं। यह इस रचना की सार्थकता है। पाठक के चिंतन को झकझोरने वाली रचना के लिए साधुवाद!
जवाब देंहटाएंसद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
विचारोत्तेजक रचना ...
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना ...विचारों की गहन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसार्थक और सुन्दर अभिव्यक्ति ..बधाई.
जवाब देंहटाएं'शब्द-सृजन की ओर' पर भी आपका स्वागत है.
bahut prabhaavshali rachna.
जवाब देंहटाएंपहली बार आपके ब्लॉग पर आया अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंह्रदय से आभार ,इस अप्रतिम रचना के लिए...
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जवाब देंहटाएंऔर मैं गहन कारागार में बंद होकर सिसकता हुआ
यह सोचता हूँ कि मेरा धवल अस्तित्व पूर्ण कालिक कब होगा !!!
बहुत ही गहन चिंतन ! मन मस्तिष्क को मथ गयी ये रचना।
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बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंपिछले कई दिनों से कहीं कमेंट भी नहीं कर पाया क्योंकि 3 दिन तो दिल्ली ही खा गई हमारे ब्लॉगिंग के!