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मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

उन्मत्त परिन्दा (अतुकांत )

तोड़ नीड़ की परिधि
लांघ कर सीमाएं
भुला  नीति रीति
सारी वर्जनाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
********



9 टिप्‍पणियां:

  1. ***आपने लिखा***मैंने पढ़ा***इसे सभी पढ़ें***इस लिये आप की ये रचना दिनांक 03/04/2014 यानी आने वाले इस गुरुवार को को नयी पुरानी हलचल पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...आप भी आना औरों को भी बतलाना हलचल में सभी का स्वागत है।


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  2. बहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना..

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  3. वर्जनाहीनता का परिणाम जो भी हो दीवाने को कहाँ परवाह होती है?

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  4. बहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना....राजेश जी बधाई..

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