तोड़ नीड़ की परिधि
लांघ कर सीमाएं
भुला
नीति रीति
सारी वर्जनाएं
छोड़ संयम की कतार
दे परवाज़ को विस्तार
वशीकरण में बंधा
लिए एक अनूठी चाह
कर बैठा गुनाह
लिया परीरू चांदनी का चुम्बन
जला बैठा अपने पर
उसकी शीतल पावक चिंगारी से
गिरा औंधें मुहँ
नीचे नागफनी ने डसा
खो दिया परित्राण
ना धरा का रहा
ना गगन का
बन बैठा त्रिशंकु
वो उन्मत्त परिंदा
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***आपने लिखा***मैंने पढ़ा***इसे सभी पढ़ें***इस लिये आप की ये रचना दिनांक 03/04/2014 यानी आने वाले इस गुरुवार को को नयी पुरानी हलचल पर कुछ पंखतियों के साथ लिंक की जा रही है...आप भी आना औरों को भी बतलाना हलचल में सभी का स्वागत है।
जवाब देंहटाएंएक मंच[mailing list] के बारे में---
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अतः हम कह सकते हैं कि एकमंच बनाने का मुख्य उदेश्य हिंदी के साहित्यकारों व हिंदी से प्रेम करने वालों को एक ऐसा मंच प्रदान करना है जहां उनकी लगभग सभी आवश्यक्ताएं पूरी हो सकें।
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सुंदर,उडना भी जरूरी है.
जवाब देंहटाएंजी हाँ जरूरी है पर अनुशासन में रह के !!
हटाएंबहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना..
जवाब देंहटाएंवर्जनाहीनता का परिणाम जो भी हो दीवाने को कहाँ परवाह होती है?
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और प्रभावशाली रचना....राजेश जी बधाई..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर..
जवाब देंहटाएंअच्छा है....................
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