नारी पत्थर सी हुई
,दिन भर पत्थर तोड़।
उसके दम से घर चले
,पैसा- पैसा
जोड़॥
राह तकें बालक कहीं ,भूखे पेट अधीर।
पूर्ण करेगी काम
ये ,पीकर थोडा नीर॥
तोड़- तोड़ के
गिट्टियां ,हुई सुबह से शाम।
पेट अगन के सामने ,नहीं जटिल ये काम॥
जीवन है संघर्षमय ,किस्मत से
बेहाल।
इन हाथों में शस्त्र हैं ,तसला और कुदाल॥
तोड़ तोड़
पत्थर करें ,उच्च भवन निर्माण।
खुद की सीली
झोंपड़ी,जिसमे निकले प्राण॥
परिवार के जोड़े रखने में सहायक..
जवाब देंहटाएंआपकी कृति बुधवार 12 फरवरी 2014 को लिंक की जाएगी...............
जवाब देंहटाएंhttp://nayi-purani-halchal.blogspot.in
आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत बढिया....नारी के संघर्ष की कहानी...राजेश जी..
जवाब देंहटाएंलाजबाब,सटीक प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: पिता
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-02-2014) को "गाँडीव पड़ा लाचार " (चर्चा मंच-1521) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut khoob likha apne....
जवाब देंहटाएंachha likha hai
जवाब देंहटाएंshubhkamnayen