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सोमवार, 20 मई 2013

यूँ ही कभी-कभी सोचती हूँ


(1)
जहां कदमो के निशाँ बनते थे
वो माटी  रही इस शहर में
दोस्तों ,कहाँ से गुजरेंगे
कोई कैसे ढूँढेगा ?? 
(2)
वो दरक का दर्द क्या जाने
जिसने जिन्दगी में कभी आईना  नहीं देखा। 
हर शहर आसमाँ छूने की होड़ में है
जमीं खफ़ा हो गई तो क्या होगा ??
(३)
जानती हूँ हम नदी के दो किनारे हैं
 फिर भी आग उस पार जलती है
तो धुआं इस पार उठता है
 जाने क्यों??
( )
वक़्त भागता है तो पकड़ने के लिए
पीछे भागती हूँ वक़्त मिलता है तो खुद से भागती हूँ
उफ्फ कैसी विडंबना है बड़े मनमानी करने लगे हैं
आजकल ये मेरे अस्तबल के घोड़े !!!
( )
लगता है मकान 
मालिक बदल गया 
आजकल उन रोशनदानो में 
कबूतर दिखाई नहीं देते 


***************************************


17 टिप्‍पणियां:

  1. राजेश जी बहुत बढ़िया ... आभार

    वक़्त भागता है तो पकड़ने के लिए
    पीछे भागती हूँ वक़्त मिलता है तो खुद से भागती हूँ
    उफ्फ कैसी विडंबना है बड़े मनमानी करने लगे हैं
    आजकल ये मेरे अस्तबल के घोड़े !!!

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  2. जानती हूँ हम नदी के दो किनारे हैं
    फिर भी आग उस पार जलती है
    तो धुआं इस पार उठता है
    न जाने क्यों??-bahut khub

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  3. वो दरक का दर्द क्या जाने
    जिसने जिन्दगी में कभी आईना नहीं देखा।
    हर शहर आसमाँ छूने की होड़ में है
    जमीं खफ़ा हो गई तो क्या होगा ??........बह्त बढिया..

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  4. आपकी यह रचना कल मंगलवार (21 -05-2013) को ब्लॉग प्रसारण के "विशेष रचना कोना" पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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  5. कविता और दर्शन जहाँ संयुक्त हो जाएँ वहाँ की थाह बड़ी कठिन होती है !

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  6. भावनाओं को आयाम देती सुन्दर रचना !!

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  7. परिपक्व विचारों का कीमती गुलदस्ता.......

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  8. वो दरक का दर्द क्या जाने
    जिसने जिन्दगी में कभी आईना नहीं देखा।
    हर शहर आसमाँ छूने की होड़ में है
    जमीं खफ़ा हो गई तो क्या होगा ??

    बहुत गहन भाव लिए मुक्तक ।

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  9. जानती हूँ हम नदी के दो किनारे हैं

    फिर भी आग उस पार जलती है

    तो धुआं इस पार उठता है

    न जाने क्यों??...

    दो किनारे ही सही .. मिल न पाए तो क्या ... एक ही तरलता से, एक ही नमी से बंधे तो हुए हैं दोनों ... दर्द भरी रचना ...

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  10. वो दरक का दर्द क्या जाने
    जिसने जिन्दगी में कभी आईना नहीं देखा।
    हर शहर आसमाँ छूने की होड़ में है
    जमीं खफ़ा हो गई तो क्या होगा ??
    गहन भाव लिये मन को छूती पोस्‍ट
    सादर

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  11. नदी के दो किनारे .उस पार जलती आग और इसओर तक आता धुँआ ...वाह बहुत ही दिल को छू लेने वाली कविता है ।

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  12. साथ समय के, कभी समय के आगे आगे,
    जितना मन ने उकसाया, हम उतना भागे।

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  13. राजेश जी, दिल से निकली हुई इन सुंदर पंक्तियों के लिए बधाई..

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  14. जहां कदमो के निशाँ बनते थे
    वो माटी न रही इस शहर में
    दोस्तों ,कहाँ से गुजरेंगे
    कोई कैसे ढूँढेगा ??..............लगता है माकन मालिक बदल गया है ...जमी खफा हो गयी तो का होगा ...? बेहतरीन बेहतरीन बेहतरीन

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  15. जहां कदमो के निशाँ बनते थे
    वो माटी न रही इस शहर में
    दोस्तों ,कहाँ से गुजरेंगे
    कोई कैसे ढूँढेगा ??

    ....वाह! बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचनाएँ...

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  16. सार्थक उद्गार प्रकट करती सुन्दर क्षणिकाएं।

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