अब क्या है जीवन के पार
जाना है क्षितिज के पार
आ मुझको पर देदे उधार
सुदूर गगन में मै भी जाऊं
बकुल मेखला में जुड़ जाऊं .
करूँ वहां अठ्खेलियन
जहाँ स्वछंदता अपरम्पार
आ मुझको पर देदे उधार .
शशि रवि की किरने लेकर
पवन अगन के संग खेलूं
अम्बर घट को विच्छेदित कर
उदक बूँद पंखों में भर लूं
परी लोक में हो आहार .
आ मुझको पर देदे उधार .
गहन घाटिओं के गुंजन पर कान धरूँ
अपने संगीत की गूँज सुनु
सर्वोन्नत चोटी को छूकर
फिर चहुँ और आलोकन करूँ
अब क्या है जीवन के पार
आ मुझको पर देदे उधार .
जाना है क्षितिज के पार !
जवाब देंहटाएंआ , मुझको पर देदे उधार !!
सुंदर सरस भावों के साथ सहज संप्रेषणीय रचना के लिए आभार एवम् बधाई !
हार्दिक शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सुन्दर रचना,
जवाब देंहटाएंकिसी ब्लॉग को फॉलो करें ब्लॉगर प्रोफाइल के साथ