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बुधवार, 14 दिसंबर 2011

पर का बोझ

मेरे ख़्वाबों के परों को आसमाँ मिलता रहा पर,उसको गज भर जमीं  ना मिली !
कितनी सुद्रढ़ है मेरे आशियाने की नीव पर ,  उसको एक पग देहली  ना मिली!
हीरे मणिक,रत्नों से भरा है मेरा पारावार पर, उसको खारी एक बूँद  ना मिली!
सतपक्वानो से भरी है मेरी थाली पर, उसे दो सूखी रोटी  ना मिली !
कितनी गर्म ,नर्म है मेरी रिजाई पर,उसे फटी एक कंबली  ना मिली !
फिर भी कितने सुकून से सोता है वो पर ,मुझे इक पहर भर नींद ना मिली !
और मैं इस पर के बोझ से भरी गठरी को अपनी नाव में रख कर जीवन भर खेती चली गई !!!