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शनिवार, 2 अप्रैल 2016

मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने 'ग़ज़ल '

२१२२  ११२२  ११२२  २२
रमल मुसम्मन मखबून मकतूअ

डूबते वक़्त दिया जिसको सहारा उसने
कर लिया पार उतरते ही किनारा उसने

फालतू आज समझकर जो मुझे काट रहा
 मेरी ही छाँव में बचपन था गुजारा उसने

देख बदले हुए हालात हवाओं  के रुख
मौज में छोड़ दिया जिस्म-ए शिकारा उसने

बात होने लगी बिन बात हमारी अक्सर
बज्म में नाम लिया जबसे हमारा उसने

बाँटने बोझ किसी को तो खुदा ने भेजा
देख आसान किया काम तुम्हारा उसने

जात औ धर्म की माचिस से लगा चिंगारी
खूब आँखों से पिया खून-ए-नजारा उसने

कुछ दिनों का ये जजीरा न रुका कोई यहाँ
जाना पड़ता है तभी जब भी पुकारा उसने

देश के वीर जवानों को सुनाकर गाली
मेरे अन्दर कोई सैलाब उतारा उसने 
राजेश कुमारी 'राज'  
  

10 टिप्‍पणियां:

  1. फालतू आज समझकर जो मुझे काट रहा
    मेरी ही छाँव में बचपन था गुजारा उसने ..
    संवेदनशीलता की हद्दों को पात करते हुआ शेर ... बहुत कमाल की ग़ज़ल ...

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बहुत शुक्रिया आ० दिगंबर जी

    जवाब देंहटाएं
  3. उत्तर
    1. आपका बहुत बहुत शुक्रिया आ० अनीता जी

      हटाएं
    2. आपका बहुत बहुत शुक्रिया आ० अनीता जी

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  4. मन में उठते भावों को आपके शब्दों ने खुबसूरत सचाई में पिरो दिया ....मुबारक हो .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी आपका बहुत बहुत आभार आद० अशोक सलूजा जी .

      हटाएं
  5. मन में उठते भावों को आपके शब्दों ने खुबसूरत सचाई में पिरो दिया ....मुबारक हो .

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत खूब ,
    हिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रही हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
    मानती हैं न ?
    मंगलकामनाएं आपको !
    #हिन्दी_ब्लॉगिंग

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